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सियाचिन ग्लेशियर को लेकर अक्सर चर्चा होती रहती है। एक ओर भारत की सेना तो दूसरी ओर पाकिस्तान की सेना यहां हमेशा आंख गड़ाए बैठी हुई नजर आ जाती है।

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क्या है वजह जो हर गठबंधन से मना कर दे रही है मायावती?

क्या है वजह जो हर गठबंधन से मना कर दे रही है मायावती?

UP Election 2020 की तैयारियां पूरे जोर पर है। भारतीय जनता पार्टी से लेकर कांग्रेस, समाजवादी, बसपा सभी ने अपनी तैयारियां शुरु कर दी है। जहां एक तरफ दल एक हो रहे हैं और गठबंधन कर रहे हैं तो वहीं बसपा सुप्रीमो मायावती की तरफ से ऐलान कर दिया गया है कि वो 2022 यूपी विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेंगी। सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि उत्तराखंड विधानसभा चुनाव भी बसपा बिना किसी गठबंधन के लड़ेगी।

पहले ऐसी खबरें सामने आ रही थी कि मायावती और असदुद्दीन ओवैसी यूपी में एक हो कर चुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन अब मायावती के बयान के बाद से ये कयास ठम गए हैं और एआईएमआईएम ने राजभर के साथ गठबंधन कर लिया है। ओवैसी के साथ गठबंधन ना करने के पीछे बिहार विधानसभा चुनाव भी है, क्योंकि बिहार में मायावती और ओवैसी एक साथ चुनाव लड़े थे, लेकिन पूरे गठबंधन में फायदे में सिर्फ ओवैसी की पार्टी ही रही जिसे एक झटके में 5 सीटें मिल गयीं थी।

2019 में ही कर दिया था ऐलान नहीं करेंगी किसी के साथ गठबंधन

मायावती ने वैसे तो साल 2019 के आम चुनाव के बाद सपा-बसपा गठबंधन को एकतरफा तोड़ने के बाद भी कहा था कि आगे वो अकेले ही चुनावों में हिस्सा लेंगी। ये बताने के साथ ही शायद जताने के लिए मायावती ने अपनी रणनीति के खिलाफ जाते हुए आम चुनाव के बाद हुए उपचुनावों में भी हिस्सा लिया था। मायावती के चुनावी गठबंधन करने की संभावना इसलिए भी लग रही थी क्योंकि हाल ही में बसपा ने अकाली दल के साथ पंजाब में चुनावी गठबंधन किया है। बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्र ने अकाली नेता सुखबीर सिंह बादल के साथ इस गठबंधन की घोषणा भी की थी।

बीते बरसों में बसपा की राजनीति को देखें तो मायावती खुद को दलित की बेटी के रूप में प्रोजेक्ट करते हुए यूपी के दलित वोट बैंक के हिस्से राजनीति में टिकी हुई हैं। इसके बाद में मायावती के साथ सिर्फ उनकी बिरादरी के वोट ही उनको मिल पाते हैं। अकेले उनके भरोसे विपक्ष की राजनीति तो चल सकती है, सत्ता की राजनीति तो संभव ही नहीं है। सत्ता हासिल करने के लिए मायावती को कभी गठबंधन की मदद लेनी पड़ी है तो कभी सोशल इंजीनियरिंग का सहयोग लेना पड़ा है, बिना इसके मायावती को लंबे संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ा है और फिलहाल तो मायावती के सामने सबसे बड़ा चैलेंज भी यही है।

अब अगर मायावती चुनावी गठबंधन से खुद को पूरी तरह से अलग कर रही है तो इसका मतलब या तो मायावती सत्ता की राजनीति में कुछ खास मजबूरियों के चलते सिर्फ रस्म अदायगी भर करना चाहती हैं या फिर आजमाये हुए सोशल इंजीनियरिंग के ही किसी नुस्खे को फिर से आजमाने की तैयारी में लगती हैं। फिर तो देखना होगा कि मायावती के पिटारे से आने वाले दिनों में क्या निकल कर आता है?

मुस्लिम वोट से या चुनावी गठबंधन से दूरी?

मायावती साल 2022 का पंजाब चुनावतो अकाली दल के साथ गठबंधन करने लड़ेंगी, लेकिन यूपी चुनाव में कोई गठबंधन नहीं करेंगी और हां, उत्तराखंड के बारे में भी बसपा नेता ने ऐसा ही कहा है, साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में मायावती गठबंधन के साथ ही उतरी थीं और खास बात ये रही कि बिहार के जिस चुनावी गठबंधन में मायावती शामिल थीं, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी भी उसका हिस्सा रही है। यूपी की एक और पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी उसी गठबंधन में शामिल थी। ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट के नेता उपेंद्र कुशवाहा रहे जो चुनाव बाद अपनी पार्टी के साथ नीतीश कुमार की JDU में शामिल हो गये थे। फिलहाल वो जेडीयू के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष हैं।

मायावती ने ट्विटर पर ही ओवैसी के साथ चुनावी गठबंधन की खबरों को खारिज कर दिया था और लगे हाथ मीडिया से अपील की है कि बहुजन समाज पार्टी से जुड़ी कोई भी खबर हो तो पहले सतीश चंद्र मिश्र से सही जानकारी जरूर लें, ताकि पार्टी अपना पक्ष रख सके। ट्विटर के जरिये ही मायावती ने ये भी बताया है कि सतीश चंद्र मिश्र को बसपा के मीडिया सेल का राष्ट्रीय कोऑर्डिनेटर बनाया गया है। असदुद्दीन ओवैसी के साथ गठबंधन को लेकर मायावती ने बड़े ही सख्त लहजे में रिएक्ट किया है और ये बात थोड़ी अजीब लगती है। आखिर मायावती को ओवैसी के साथ भी अखिलेश यादव जैसा ही कोई गठबंधन का कड़वा अनुभव हुआ है या फिर वो मुस्लिम समुदाय के बसपा का साथ न देने से खफा हैं।

साल 2012 में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के हाथों सत्ता गंवाने के बाद से मायावती ने कम से कम दो चुनावों में बड़ी उम्मीद के साथ मुस्लिम वोट बैंक को साधने की शिद्दत से कोशिश की साल 2014 के आम चुनाव और 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में भी वो ये करते नजर आई। साल 2019 में भी देवबंद की एक रैली में मायावती के भाषण पर काफी विवाद हुआ था और भाजपा की तरफ से चुनाव आयोग में शिकायत भी की गयी थी। तब भाजपा नेता जेपीएस राठौर ने मायावती पर वोट के लिए धार्मिक उन्माद भड़काने जैसे बेहद गंभीर आरोप लगाये थे।

बसपा नेता के जिस भाषण पर बवाल मचा था, उसमें मायावती कह रही थीं कि मैं खासतौर पर मुस्लिम समाज के लोगों से ये कहना चाहती हूं कि आपको भावनाओं में बहकर, रिश्ते-नातेदारों की बातों में आकर वोट बांटना नहीं है बल्कि, एकतरफा वोट देना है। तब मायावती सपा-बसपा गठबंधन के लिए वोट मांग रही थीं और साफ साफ कह रही थीं कि कांग्रेस को वोट न देकर वो सिर्फ गठबंधन को वोट दें ताकि भाजपा को सत्ता से बेदखल किया जा सके।

साल 2017 के चुनाव में मायावती को भाजपा को लेकर कोई संभावना तो रही नहीं होगी, इसलिए सारा फोकस अखिलेश यादव को दोबारा सत्ता में आने से रोक कर खुद लौटने की कोशिश रही। तब बसपा को मुस्लिम वोट दिलाने के लिए मायावती ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी को जिम्मेदारी दे रखी थी और पूर्वी यूपी के मुस्लिम वोट के लिए मुख्तार अंसारी को सुधरने के नाम पर एक और मौका दिया था। नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे उन दिनों बसपा के लिए वोट मांग रहे थे, वैसे ही फिलहाल सलमान खुर्शीद की अगुवाई में कांग्रेस के लिए समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं।

मायावती का वोट हुआ ट्रांसफर?

अखिलेश यादव के साथ चुनावी गठबंधन तोड़ते वक्त मायावती ने एक खास वजह भी बतायी थी कि वोट ट्रांसफर न होना। असल में, गोरखपुर, फूलपुर और उसके बाद कैराना उपचुनाव में मायावती ने समाजवादी पार्टी के कैंडीडेट को सपोर्ट किया था और तीनों उपचुनावों में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों की जीत की वजह बसपा के वोटों का ट्रांसफर होना रहा था और शायद ये बात ही 2019 के आम चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन का प्रमुख आधार भी रही होगी।

सवाल ये है कि मायावती समाजवादी पार्टी के किस वोट के ट्रांसफर होने की बात कर रही होंगी यादव वोट या मुस्लिम वोट? कहीं मायावती को ये तो नहीं लगा कि अखिलेश यादव मुस्लिम वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं करा पाये? साल 2014 में जीरो बैलेंस में रहीं मायावती ने 2019 में 10 संसदीय सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन अखिलेश यादव की पार्टी को महज 5 ही सीटें मिली थीं। मायावती के मैनपुरी पहुंच कर वोट मांगने से या जैसे भी मुलायम सिंह यादव तो संसद पहुंच गये, लेकिन डिंपल यादव चुनाव हार गयीं।

भाजपा का खुलकर करती रही है समर्थन

इसके बाद में भी मायावती को अक्सर भाजपा के सपोर्ट में खड़े देखा गया है और लगता तो ऐसा ही है जैसे मायावती के शब्द भले अलग हों, लेकिन उनके स्टैंड खुल कर भाजपा के एजेंडे के सपोर्ट में हो गया है और ये ऐसा है जो मुस्लिम समुदाय को बसपा से दूर ही ले जा सकता है, नजदीक आने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। जब यूपी में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन चल रहा और पुलिस एक्शन के शिकार मुस्लिम परिवारों से प्रियंका गांधी मिलने जातीं तो भाजपा से पहले मायावती ही कांग्रेस महासचिव के खिलाफ धावा बोल देतीं। जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने के मामले में भी मायावती ने खुल कर मोदी सरकार का सपोर्ट किया और आलम ये रहा कि धारा 370 पर सरकार के स्टैंड के खिलाफ बोलने पर मायावती ने दानिश अली को लोक सभा में बसपा के नेता के पद से भी हटा दिया।

ऐसे कई मौकों पर कांग्रेस विरोध के नाम पर मायावती का स्टैंड भाजपा के सपोर्ट में ही नजर आया, जो मुस्लिम समुदाय को कभी मंजूर नहीं हो सकता है। तभी तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मायावती को भाजपा का अघोषित प्रवक्ता तक करार दिया है। आम चुनाव के दौरान मायावती खुद को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर भी पेश कर रही थीं और एक रैली में मायावती समझा रही थीं कि अगर चुनाव बाद उनको लखनऊ से कहीं दिल्ली शिफ्ट हो जाना पड़ा और बसपा के लिए नया नेता चुनना पड़ा तो वो दलित नहीं तो मुस्लिम ही होगा। मुलायम सिंह और लालू यादव की तरह मायावती का ये दलित-मुस्लिम गठजोड़ प्रयोग रहा लेकिन बार बार असफल साबित हुआ है।

फिर से सोशल इंजीनियरिंग की तैयारी है क्या?

जिस रैली में मायावती ने बसपा में दलितों के बाद मुस्लिम समुदाय को महत्व दिये जाने की बात की थी, उसी दौरान एक तरीके से ब्राह्मणों को लेकर भी एक मैसेज दिया था। मायावती ने समझाया था कि मुस्लिम समुदाय ये न सोचे कि उनके प्रधानमंत्री बन जाने के बाद दलित नेता के अभाव में कोई ब्राह्मण बसपा को लीड करेगा। मायावती ने रैली में समझाया था कि वो जहां कहीं भी जाती हैं तो सतीश चंद्र मिश्र को साथ रखने की वजह और ही होती है ताकि कहीं कोई कानूनी पचड़ा हो तो वकील होने के नाते सतीश चंद्र मिश्र मोर्चा संभाल लें।

सतीश चंद्र मिश्र ही अब तक मायावती के भरोसेमंद साथी बने हुए हैं क्योंकि स्वामी प्रसाद मौर्य, ब्रजेश पाठक, नसीमुद्दीन सिद्दीकी और राम अचल राजभर जैसे नेताओं का मायावती से साथ छूट चुका है। हां, मायावती अपने भाई को बसपा का उपाध्यक्ष बनाने और हटाने जैसे प्रयोगों के बाद भतीजे आकाश आनंद को लायी हैं। तृणमूल कांग्रेस में अभिषेक बनर्जी की तरह ही बसपा में आकाश आनंद को मायावती के उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जाता है।

मायावती के अब तक के सबसे सफल सोशल इंजीनियरिंग एक्सपेरिमेंट के जो आर्किटेक्ट रहे हैं, सतीश चंद्र मिश्र भी उनमें से एक हैं। साल 2007 में 206 सीटों के साथ सतीश चंद्र मिश्र के दलित-ब्राह्मण गठजोड़ की बदौलत ही मायावती अपने बूते मुख्यमंत्री बन पायी थीं, लेकिन उसे पांच साल से आगे नहीं बढ़ा पायीं और तब से मायावती की राजनीति हाशिये की तरफ ही बढ़ती जा रही है। साल 2012 में हुए अगले ही चुनाव में बसपा 80 सीटों पर पहुंच गयी और साल 2017 में तो ये नंबर 19 हो गया था।

रितेश पांडे को लोक सभा नेता बनाना सोची समझी चाल

मायावती ने जिस तरीके से दानिश अली को हटाकर रितेश पांडे को लोक सभा में बसपा का नेता बनाया वो भी दिलचस्प लगता है। अंबेडकर नगर से सांसद रितेश पांडे बसपा में सतीश चंद्र मिश्र के बाद नया ब्राह्मण चेहरा बन गये हैं। रितेश के पिता राकेश पांडे भी बसपा के सांसद रहे हैं और लंदन से इंटरनेशनल बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई करने वाले रितेश साल 2017 में बसपा के टिकट पर यूपी विधानसभा और 2019 में संसद पहुंच गये। पहले विधायक और फिर सांसद बनने के साल भर के भीतर ही रितेश पांडे को लोक सभा में बसपा का नेता बना देना भी क्या मायावती के मिशन 2022 का कोई हिस्सा हो सकता है?

अभी पिछले साल अगस्त में ही परशुराम जयंती के मौके पर मायावती ने सार्वजनिक अवकाश घोषित करने की मांग का समर्थन किया था और कहा कि अगर भाजपा सरकार ऐसा नहीं करती तो बसपा की सरकार बनने पर वो जरूर करेंगी। मायावती ने तभी ये भी वादा किया कि सत्ता में आने पर वो परशुराम की मूर्ति बनवाने के साथ साथ अस्पताल और गेस्ट हाउस भी बनवाएंगी। क्या मायावती फिर से दलित-ब्राह्मण सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला अपनाने जा रही हैं और देखें तो अब तक मायावती का यही एक प्रयोग सफल भी रहा है। परशुराम जयंती के मौके पर मूर्तियां बनाने को लेकर मायावती और अखिलेश यादव में जो होड़ मची देखी गयी। कहीं वही मायावती की नयी रणनीति की नींव की ईंट तो नहीं?

Taranjeet

Taranjeet

A writer, poet, artist, anchor and journalist.