19 नवंबर गुरु पर्व के दिन केंद्र की मोदी सरकार ने देश से और किसानों से माफी मांगते हुए तीनों कृषि कानूनों को वापिस ले लिया है। इस फैसले को लेने में 750 किसानों की जान गई, लगभग एक साल तक दिल्ली के बॉर्डर बंद रहे क्योंकि हमारी केंद्र सरकार अपनी जिद्द पर अड़े बैठी थी और उसे झुकने में एक साल का वक्त लग गया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये फैसला आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए ही लिया गया है ताकि फिर से मोदी सरकार अपनी राजनीति के चरम सुख
का आनंद ले सके। कहीं ना कहीं मोदी सरकार को नजर आ रहा था कि किसानों के इस आंदोलन का असर पंजाब में तो हो ही रहा है, लेकिन उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और सबसे बड़ा उत्तर प्रदेश में भी इसका असर हो सकता है।
जिस तरह से किसानों के द्वारा महापंचायतें की जा रही है और जनता से भाजपा के खिलाफ वोट देने की अपील की जा रही है तो वो मोदी सरकार और उससे भी ज्यादा योगी सरकार को खटक रहा है। हालांकि जैसे ही कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा हुई उसके कुछ ही वक्त के बाद नरेंद्र मोदी यूपी दौरे पर निकले और महोबा पहुंच गये। ऐसा माना जा रहा था कि वो महोबा में सिर्फ कृषि कानूनों और किसानों पर बात करेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जब पूरे देश में कृषि कानूनों की वापसी पर चर्चा चल रही थी, तो महोबा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सभा में पहुंचे लोगों से तीन तलाक की बात करने लगे हुए थे। ट्रिपल तलाक कानून 2019 के आम चुनाव में जीत के बाद सरकार बनते ही चुनावी वादे पूरे करने के क्रम में बनाया गया था और फिर से उसकी चर्चा करके प्रधानमंत्री मोदी नए सिरे से अलग संदेश देने की कोशिश कर रहे थे। जिसका मकसद साफ नजर आ रहा था कि वो कृषि कानून और किसानों पर बात करने से बचना चाहते हैं।
दरअसल ये कुछ और नहीं बल्कि सबका साथ और सबका विकास वाले नेता की गढ़ी गयी छवि पेश करने की कोशिश रही है। वो नेता जो अब अपने स्लोगन में सबका विश्वास और सबका प्रयास भी जोड़ चुके हैं। भाजपा नेताओं ने मोदी के संबोधन के बाद तो जैसे थैंकयू कैंपेन ही शुरू कर दिया और भाजपा की तरफ से ये बताने की कोशिश है कि मोदी जैसा सक्षम और मजबूत नेता ही ऐसा कर सकता है जिसे देश की चिंता हो। देशहित में कदम पीछे खींचने में भी ऐसे नेता को कोई हिचक नहीं होती है। दरअसल, ये कुछ और नहीं बस किसानों के नाम पर क्रेडिट लेने की सत्ता पक्ष और विपक्षी नेताओं के बीच मची होड़ है। लेकिन निशाना सिर्फ और सिर्फ विधानसभा चुनाव है। वो भी खासकर यूपी विधानसभा चुनाव जिसमें खूब जोड़-तोड़ अभी से की जा रही है, कई नए गठबंधन हो रहे हैं और कई पुराने टूट रहे हैं।
यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा की तरफ से नारा लगाया जाने लगा है ‘एक बार फिर 300 पार’, साल 2017 यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा को 312 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल हुई थी और एक बार फिर से वही दोहराने की कोशिश में भाजपा लगी हुई है। उतनी ही नहीं तो 403 में से कम से कम 300 सीटें तो झोली में भरी ही जा सके। योगी आदित्यनाथ की सत्ता में वापसी सुनिश्चित की जा सके इसलिए सबसे मुश्किल टास्क अमित शाह ने अपने हाथ में लिया है।
सात साल में ये पहला मौका रहा है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधे सीधे माफी मांगते हुए देखा गया हो और वो भी नेशनल टीवी पर राष्ट्र के नाम संबोधन के दौरान। कोरोना वायरस की दूसरी लहर के बाद देश भर में अस्पताल में बेड और जरूरी दवाओं से लेकर ऑक्सीजन तक के लिए मची अफरातफरी के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भावुक होते देखा गया था, जब वो अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी के फ्रंटलाइन वर्कर से बात कर रहे थे। वो मंजर भी भारी तबाही का था और वो मोदी के अफसोस के इजहार का ही एक तरीका रहा है, लेकिन जो बातें कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के वक्त मोदी की तरफ से कही गयीं उनमें बेबसी का भाव भरा हुआ था लेकिन क्षमा मांग लेने या तपस्या में चूक बताने भर से क्या अचानक सब कुछ एकदम से बदल जाएगा, ऐसा भी तो नहीं लगता है। हां, ये जरूर है कि बड़ा नुकसान जरूर टल सकता है।
मोदी के हालिया ऐलान को जिसे गोदी मीडिया के द्वारा मास्टर स्ट्रोक के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है, उसके बाद से एक नयी होड़ शुरू हो गयी है। किसानों के नाम पर कानूनों की वापसी का क्रेडिट लेने की और इसमें ना तो सत्ता पक्ष पीछे हैं और ना ही विपक्षी दल पीछे हैं। दरअसल इन दोनों ही पक्षों में से किसी को भी किसानों के हक कीचिंता ना तो अभी है और ना कभी पहले भी थी, ये तो सब वोट खींचने के रेस थी और अभी भी वही जारी है।
ये चुनाव मैदान में कूदने से पहले का राजनीतिक संघर्ष है जो ये संघर्ष जीतेगा, आगे भी उसकी राह आसान होगी। ये भी देखना होगा कि क्या मोदी के माफी मांग लेने से लोग माफ कर भी देते हैं या नहीं? मोदी के साथ प्लस प्वाइंट ये है कि लोकप्रियता के मामले में वो देश भर के सभी नेताओं से काफी आगे निकल चुके हैं और यहां तक कि भाजपा में भी कोई नेता लोकप्रियता के मामले में उनके आस पास नजर नहीं आते हैं। मूड ऑफ द नेशन के सर्वे में तो अमित शाह और योगी आदित्यनाथ भी काफी पीछे देखे गये है, ममता बनर्जी और राहुल गांधी की तो बात ही और है।
मोदी सरकार का ताजा फैसला पंजाब में भाजपा के लिए ज्यादा कारगर लगता है, बनिस्बत यूपी के मुकाबले और उत्तर प्रदेश में भी पश्चिम यूपी में भाजपा के लिए अभी मुश्किलें खत्म नहीं हुई हैं। निश्चित तौर पर यही वजह होगी कि जब यूपी को 6 हिस्सों में बांट कर तीन-तीन जोन के प्रभारी बनाये गये तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सबसे मुश्किल टास्क पश्चिम यूपी की कमान अपने हाथ में रखी है। पश्चिम यूपी में भी भाजपा नेताओं के सामने पंजाब जैसी ही चुनौती खड़ी हो गयी थी। कृषि कानूनों को लेकर लोगों की नाराजगी ऐसी भारी पड़ रही थी कि भाजपा नेताओं का गांवों में घुसना मुश्किल हो गया था और ये कोई छोटे मोटे नेता नहीं थे इनमें संजीव बालियान, सुरेश राणा और उमेश मलिक को भी किसान आंदोलन के बीच लोगों के जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा है।
ऐसा भी नहीं कि मोदी के माफी मांगते हुए कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के साथ ही सब कुछ पूरी तरह से बदल गया हो। लोग भाजपा नेताओं को लेकर कह रहे हैं कि उन्हें इस क्षेत्र की समझ नहीं है, व्यक्तिगत गरिमा हर बात से ऊपर होती है और वो कैसे अपने लोगों को चेहरा दिखाएंगे?
किसान आंदोलन और कृषि कानूनों को लेकर भाजपा के अंदर से भी खुलेआम नसीहत देने की कोशिश देखी गयी। सत्यपाल मलिक और वरुण गांधी के तात्कालिक या भविष्य के इरादे जो भी हों, लेकिन उनके बयान भी कांग्रेस के G-23 नेताओं की तरह पार्टी हित में ही लगते हैं। जैसे गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल या उनके चिट्ठी लिखने से पहले संदीप दीक्षित जैसे नेता कांग्रेस में पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग करते रहे हैं और शशि थरूर जैसे कई नेता सामने आकर कहते हैं कि जो मुद्दे उठाये जा रहे हैं वो कार्यकर्ताओं के मन की ही बात है। सत्यपाल मलिक को लेकर कई भाजपा नेता भी मानते हैं कि संवैधानिक पद पर होते हुए वो अनुशासन का कतई उल्लंघन नहीं करते, क्योंकि वो अपनी बिरादरी के लोगों को अच्छी तरह जानते हैं। लिहाजा मलिक ने लोगों की भावनाएं ही सामने लाने का जोखिम उठाया है। कृषि कानूनों को लेकर मोदी सरकार के बैकफुट पर जाने के बाद तो ये चीज साबित भी हो चुकी है, सत्यपाल मलिक सत्य वचन ही बोल रहे थे।
भाजपा की फूल प्रूफ चुनावी मुहिम के लिए पूरे यूपी को छह जोन में बांटा गया है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा के तीन सबसे सीनियर नेताओं ने कमान संभाली है। ध्यान देने वाली बात ये है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सबसे मुश्किल टास्क अपने जिम्मे रखा है। जल्दी ही ये नेता बूथ कॉनक्लेव करने जा रहे हैं। अमित शाह के पास जहां ब्रज और पश्चिम क्षेत्र की जिम्मेदारी आयी है तो वहीं भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के जिम्मे कानपुर और गोरखपुर क्षेत्र है और इसी तरह रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह अवध और काशी क्षेत्र की जिम्मेदारी संभाल रहे है। देखा जाये तो जेपी नड्डा के हिस्से में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का इलाका है तो राजनाथ सिंह के पास प्रधानमंत्री मोदी का संसदीय क्षेत्र और अमित शाह के पास वो इलाका जहां कृषि कानूनों की वापसी से पहले तक भाजपा नेताओं का गांवों में घुसना तक मुहाल हो चुका था।
अमित शाह के जिम्मे मिले ब्रज-पश्चिम जोन को भी छह डिवीजन में बांटा गया है और हर डिविजन में तीन जिले शामिल किये गये हैं। भाजपा ने साल 2017 के विधानसभा चुनाव में इलाके की 135 में से 115 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि 2019 के आम चुनाव में 27 में से 24 लोक सभा सीटों पर जीत हासिल की थी। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक साल 2022 के विधानसभा चुनाव के दौरान पश्चिम यूपी के मौजूदा जाट विधायकों के टिकट काट दिया जाना करीब करीब पक्का है। पक्का इसलिए भी है क्योंकि अमित शाह ने पश्चिम यूपी की कमान भी खुद संभाल रखी है और सत्ता विरोधी लहर की काट में उनका ये पुराना आजमाया हुआ और बेहद कारगर नुस्खा रहा है। वैसे भी पूरे उत्तर प्रदेश में 100-150 यानी आधे विधायकों के टिकट काटे जाने की बातें पहले से ही चर्चा में हैं।