Wednesday, 15 January 2025
देश में सबसे बड़े चुनावी सर्वे में से एक सीवोटर के ताजा सर्वे में कई हैरान करने वाली बातें सामने आई है। जिससे चुनावी रणनीतियां बदलनी तय है। सीवोटर के ताजा सर्वे में अनुमान लगाया गया है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मुकाबला कांटे का हो सकता है। आपको बता दें कि अगले साल के शुरुआती महीनों में 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, जिसमें उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर शामिल है।
नवंबर महीने के लिए सीवोटर ट्रैकर ने अनुमान लगाया है कि उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी एनडीए करीब 217 सीटें जीत सकता है, जो कि 2017 के नतीजे से सौ सीटें कम है जबकि समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाला गठबंधन जिसमें राष्ट्रीय लोक दल और सुहेलदेव भारती समाज पार्टी शामिल है उसे लगभग 156 सीटें मिल सकती है। आपको बता दें कि 403 सीटों वाली यूपी विधानसभा में मायावती की बहुजन समाज पार्टी को 18 और देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल कांग्रेस को सिर्फ 8 सीटें ही मिल सकती है। हालांकि इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच का अंतर पिछले एक महीने में कम हुआ है और दोनों के बीच में मुकाबला कड़ा हो सकता है।
जहां एक तरफ अक्टूबर के लिए सीवोटर ट्रैकर ने एनडीए को 245 और समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन को 134 सीटें मिलने का अनुमान लगाया था, यानी दोनों के बीच 111 सीटों का अंतर था, तो वहीं अब नवंबर महीने के अनुमान के मुताबिक दोनों गठबंधनों के बीच का अंतर घटकर अब सिर्फ 61 सीटों का हो गया है, यानी की अंतर एक महीने में ही 50 सीटें कम हो गया है। ये कमी ऐसे समय में आई है जब भाजपा के अंदर फूट की चर्चा चल रही है, एक तरफ योगी आदित्यनाथ सरकार है और दूसरी तरफ पार्टी संगठन जिसे केंद्रीय नेतृत्व के एक वर्ग का समर्थन है।
दिलचस्प बात तो ये है कि भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच सीटों में घटता अंतर वोट शेयर में नहीं दिख रहा है। दरअसल भाजपा और समाजवादी पार्टी के अनुमानित वोट शेयर में पिछले एक महीने में मामूली गिरावट आई है जबकि कांग्रेस को सबसे ज्यादा फायदा हुआ है। अक्टूबर और नवंबर के बीच कांग्रेस का अनुमानित वोट शेयर तीन फीसदी बढ़ा है। तो उत्तर प्रदेश में भाजपा की बढ़त कम होना किस बात का संकेत है? क्या सच में भाजपा को चुनावों में बड़ा झटका लग सकता है?
मुख्य रूप से यूपी में तीन क्षेत्र हैं जहां भाजपा को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। पश्चिमी यूपी, रोहिलखंड और पूर्वी यूपी और इन तीनों क्षेत्रों में बढ़त कम होने का सिलसिला अलग-अलग समय पर शुरू हुआ है।
सहारनपुर जिले की कुछ सीटों को छोड़ दें तो भाजपा ने साल 2017 में इस क्षेत्र में काफी अच्छा प्रदर्शन किया था। ऐसा साल 2013 की मुजफ्फरनगर हिंसा के बाद जाट वोटों के करीब-करीब पूरी तरह भाजपा को मिलने के कारण हुआ था। लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक साल 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए का जाट वोट बैंक और मजबूत हुआ और पार्टी को समुदाय के 91 फीसदी वोट मिले। हालांकि ऐसा लगता है कि कृषि कानून और उसके बाद जारी विरोध प्रदर्शन के कारण जाट समुदाय का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के खिलाफ हो गया है। जाट समुदाय का आरएलडी की तरफ वापिस लौटने का अनमुान लगाया जा रहा है। पंजाब के किसानों के साथ-साथ, पश्चिमी यूपी के जाट किसान विरोध-प्रदर्शनों में सबसे आगे रहे हैं। भारतीय किसान यूनियन के राकेश टिकैत आंदोलन का एक महत्वपूर्ण चेहरा बन कर उभरे हैं और कृषि कानून वापस लेने के ऐलान का कुछ फर्क जरूर पड़ेगा लेकिन चुनाव विश्लेषक और सीवोटर के संस्थापक यशवंत देशमुख का कहना है कि कृषि कानून इस कहानी का एक हिस्सा भर है। उत्तर प्रदेश के जाटों का ये सोचना है कि उनकी सत्ता तक पहुंच खत्म हो गई है, उनकी तरफ से बोलने वाला कोई नहीं है। इसका फायदा जयंत चौधरी उठा रहे हैं और वो जाटों और मुसलमानों को फिर से एक कर रहे हैं।
इससे राकेश टिकैत और आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी की जाट समुदाय में बढ़ती लोकप्रियता को समझा जा सकता है। पिछले कुछ महीनों से ये साफ हो गया है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को ज्यादा नुकसान इसी क्षेत्र में हो रहा है। हालांकि नवंबर ट्रैकर ने एक और क्षेत्र – पूर्वी यूपी में भाजपा को हो रहे नुकसान का खुलासा किया है जहां पर 2 महीने पहले तक भाजपा के लिए स्थिति उतनी खराब नहीं थी।
इस क्षेत्र में जातिगत विभाजन काफी मजबूत रहा है और सिर्फ ठाकुरों को आगे बढ़ाने की योगी आदित्यनाथ की छवि से लेकर समाजवादी पार्टी और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के बीच गठबंधन, कई कारक मिल कर भाजपा के नुकसान को बढ़ा सकते हैं। यहां पर एक और मुद्दा है और ये साफ तौर पर दिखाता है कि साल 2017 में, पूर्वी यूपी की कई सीटों पर एनडीए की जीत का अंतर 10 फीसदी प्वाइंट से कम था। इसलिए हल्के से भी बदलाव से एनडीए को नुकसान हो सकता है।
साल 2017 के विधानसभा चुनावों में विपक्ष सिर्फ 2 क्षेत्रों रोहिलखंड और पूर्वी यूपी के आजमगढ़, जौनपुर और गाजीपुर जैसे जिलों के कुछ इलाकों में टक्कर दे सका था। यहां तक कि लोकसभा चुनावों में भी उत्तर प्रदेश में यही वो मुख्य क्षेत्र थे जहां विपक्ष भाजपा की लहर के सामने टिक सका था। मुरादाबाद प्रशासनिक डिविजन में जो मोटे तौर रोहिलखंड क्षेत्र के जैसा ही है लोकसभा चुनावों में भाजपा का पूरी तरह से सफाया हो गया था। मुरादाबाद, रामपुर, संभल, अमरोहा, बिजनौर और नगीना, सभी 6 सीटों पर भाजपा को महागठबंधन से हार का सामना करना पड़ा था। ये ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां मुसलमानों की संख्या अधिक है।
समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी गठबंधन को मुस्लिम समुदाय का भारी समर्थन मिला था। रिपोर्ट से पता चलता है कि गठबंधन टूटने के बावजूद समाजवादी पार्टी के लिए मुसलमानों का समर्थन बढ़ा है, खासकर कई अहम मुद्दों पर बहुजन समाज पार्टी के भाजपा का समर्थन करने के कारण। रोहिलखंड और पूर्वी यूपी, जहां साल 2019 में ही भाजपा की कमजोरी दिखने लगी थी उसकी तुलना में पार्टी बुंदेलखंड, अवध और बघेलखंड क्षेत्र में मजबूत स्थिति में बनी हुई है। पश्चिमी यूपी में भी भाजपा हाथरस, एटा, कासगंज, अलीगढ़, गाजियाबाद और गौतम बुद्ध नगर जैसे क्षेत्रों में अपनी पकड़ बनाए रख सकती है जबकि मुजफ्फरनगर, मेरठ, सहारनपुर, शामली, बागपत और हापुड़ में पार्टी को नुकसान हो सकता है।
वोट शेयर में बड़ी कमी नहीं होने के बावजूद सीटों के अनुमान में कमी क्या कहती है? सी वोटर का सर्वे भाजपा की सीटों में बड़ी कमी को दिखाता है लेकिन पार्टी के वोट शेयर में गिरावट मामूली ही है। ये गुजरात जैसी स्थिति है जहां कुछ इलाकों में भाजपा की बढ़त काफी ज्यादा है जबकि दूसरे इलाकों में ये विपक्षी पार्टी से थोड़ी ही पीछे है, इसलिए भाजपा के अनुमानित सीटों की संख्या इस वोट शेयर पर जितनी होनी चाहिए उससे कुछ कम है। असम में कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन की भी ऐसी ही स्थिति थी जिसे कमोबेश भाजपा के बराबर बोट मिले लेकिन सीटें कम मिलीं क्योंकि उसके वोट कुछ क्षेत्रों में अधिक केंद्रित थे। यूपी में, ऐसा लगता है कि एक और बात हुई है, पिछले चुनाव की तुलना में वोटों का दो भागों में ज्यादा विभाजन। 1990 और 2000 के दशक के अधिकांश समय में उत्तर प्रदेश में टॉप दो पार्टियों का संयुक्त वोट शेयर लगभग 50-55 फीसदी ही रहा है।
साल 2017 में ये 62 फीसदी तक पहुंच गया था। अगर सीवोटर के अनुमानों पर भरोसा करें तो भाजपा और समाजवादी पार्टी का वोट शेयर मिलाकर 70 फीसदी तक पहुंच सकता है जिससे संकेत मिलता है कि दोनों पार्टियां, खासकर समाजवादी पार्टी दूसरों का खेल बिगाड़कर आगे बढ़ रही है।भाजपा विरोधी वोटों के बड़े हिस्से पर समाजवादी पार्टी के कब्जा करने के साथ ही, कई सीटें जो गैर भाजपाई पार्टियों के बीच वोट बंटने के कारण हार गई थी, अब वहां मुकाबला कड़ा हो गया है।
इस बात में कोई शक नहीं है कि जमीनी स्तर पर भाजपा को नुकसान हुआ है और ऊपर जिन तीन क्षेत्रों का जिक्र किया गया है वहां पर पार्टी को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। पार्टी को योगी सरकार और पार्टी संगठन के बीच अंदरुनी कलह के कारण भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। लेकिन इन मुद्दों के बावजूद, राज्य में भाजपा का दबदबा कायम है। इसे हराने के लिए भाजपा के खिलाफ और समाजवादी पार्टी के पक्ष में एक बहुत मजबूत बदलाव की जरूरत होगी। कितने बड़े बदलाव की जरूरत है, इसका अंदाजा लगाने के लिए आइए एक नजर डालते हैं साल 2017 में भाजपा की जीत के स्वरूप पर।
एनडीए ने जिन 325 सीटों पर जीत हासिल की थी उनमें से 93 सीटें 20 फीसदी प्वाइंट से ज्यादा अंतर से जीती थीं। ये पूरे विपक्ष की जीती गई सभी सीटों से ज्यादा है। इसके बाद 123 सीटों पर भाजपा की जीत का अंतर 10 से 20 फीसदी प्वाइंट था। इसका मतलब है कि 222 सीटों में एनडीए की जीत का अंतर 10 फीसदी प्वाइंट से ज्यादा था। इसका मतलब ये हुआ कि इन सीटों पर भाजपा के खिलाफ और इसके मुख्य विपक्षी पार्टी के पक्ष में कम से कम पांच फीसदी वोटों के बदलाव की जरूरत होगी।
विपक्ष के लिए ज्यादा आसान वो 103 सीटें होंगी जिन पर एनडीए को 10 फीसदी के कम अंतर से जीत मिली है। हालांकि, अगर विपक्ष अपनी सभी सीटें बचा ले और इन सभी 103 सीटों पर भी जीत हासिल कर ले तो भी एनडीए बहुमत के आंकड़े को पार कर लेगा जब तक कि भाजपा के खिलाफ वोट में और बड़ा बदलाव न हो। इससे ये समझा जा सकता है कि भाजपा को सत्ता से हटाना विपक्ष के लिए कितना मुश्किल होगा।
ऐसे बदलाव तभी होते हैं जब सत्ता विरोधी लहर बहुत ज्यादा होती है या पूरे के पूरे सामाजिक समूह एक पार्टी से दूसरी पार्टी में चले जाते हैं। पश्चिमी यूपी के जाट वोटरों से एक बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। पूर्वी यूपी में ब्राह्मणों के भाजपा से नाराज होने की अफवाहें हैं और कुछ जाटव भाजपा को हराने के लिए रणनीति बना कर समाजवादी पार्टी को वोट देने पर विचार कर रहे हैं।
लेकिन ये साफ नहीं है कि क्या इससे बड़ा बदलाव आ सकेगा। हां, भाजपा के कुछ नेता भी पार्टी छोड़ सकते हैं कुछ असंतुष्ट नेता सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी में जा सकते हैं या चुनाव से पूरी तरह दूर रह सकते हैं जिससे भाजपा के जनाधार पर असर हो सकता है। हालांकि इस तरह का बदलाव भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए काफी नहीं होगा।
हो सकता है कि समाजवादी पार्टी ने यूपी में 30 फीसदी वोटों को पार करने के लिए अपनी पूरी कोशिश कर ली हो जो पार्टी ने अब तक राज्य में अपने दम पर हासिल नहीं किया है। पार्टी उम्मीद कर सकती है कि जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएंगे, वो अधिक विपक्षी वोटों को एकजुट करने में सक्षम होगी। दूसरी ओर भाजपा सत्ता विरोधी लहर से निपटने के लिए कई मौजूदा विधायकों का टिकट काट सकती है। ये हो सकता है इसे और नुकसान को रोकने में मदद कर सकता है।