
बिहार चुनाव में तेजस्वी यादव को भाजपा और नीतीश कुमार राहुल गांधी की तरह डील कर रहे हैं, जो शायद उनकी एक बारी भूल है। तेजस्वी यादव और राहुल गांधी दोनों को ही राजनीति विरासत में मिली है, लेकिन इन दोनों नेताओं का तरीका पूरी तरह से अलग है। तेजस्वी राहुल से उम्र में छोटे जरूर हैं, लेकिन अनुभव में किसी तरह की कसर नजर नहीं आती। राहुल गांधी कायदे से एक सांसद के अलावा कुछ नहीं रहे हैं लेकिन तेजस्वी बिहार के उपमुख्यमंत्री भी रहे हैं।
केंद्र में सत्ताधारी भाजपा ने राहुल गांधी को पप्पू के तौर पर पेश कर कांग्रेस को बहुत नुकसान पहुंचाया है। हो सकता है भाजपा के लिए आरजेडी और कांग्रेस नेतृत्व को निशाने बनाने के लिए भ्रष्टाचार जैसा मुद्दा मिल जाता है। साल 2014 में यूपीए के सत्ता से बेदखल होने में भ्रष्टाचार का काफी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। तेजस्वी यादव को घेरने के लिए भी नीतीश कुमार लालू यादव के चारा घोटाले को बार बार सामने लेकर आते हैं। तेजस्वी यादव ने इसे काउंटर करने का कुछ इंतजाम तो किया है। जैसे जनता से माफी मांगना और पोस्टर में सिर्फ अपना चेहरा रखना।
देखा जाये तो तेजस्वी यादव राहुल गांधी वाली गलतियां नहीं कर रहे हैं। वहीं उनका फोकस भी हिला नहीं है। ऐसा ही कुछ कुछ दिल्ली चुनावों में भी देखने को मिला था। शायद तेजस्वी यादव कई मामलों में अरविंद केजरीवाल की ही तरह अनावश्यक चीजों को साफ तौर पर नजरअंदाज कर रहे हैं। राहुल गांधी को ऐसी बातें अक्सर उनके कांग्रेस के ही साथी समझाते रहते हैं, लेकिन वो उसकी कभी परवाह नहीं करते। कांग्रेस के कई नेता राहुल गांधी को समझा चुके हैं कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निजी हमले न करें और ऐसे नेताओं को डांट फटकार के चुप करा दिया जाता है।
तेजस्वी इस बात को पकड़ कर बैठ गए हैं और वो किसी भी रैली में, सभा में प्रधानमंत्री का नाम नहीं ले रहे हैं। वो इस लड़ाई को केंद्र की सत्ता से जोड़ना ही नहीं चाहते हैं। उनका सीधा हमला सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार पर होता है। इसके अलावा ना वो इधर-उधर किसी नेता पर हमला करते हैं और ना ही किसी के बारे में बात करते हैं। इससे साफ दिखता है कि उनका मकसद मोदी फैक्टर को जगाना नहीं है, लोगों में बिलकुल ऐसी भावना ना आए कि इस चुनाव में नरेंद्र मोदी का कोई रोल है।
तेजस्वी यादव ने सुशांत सिंह राजपूत मामले को भी खूब उठाया था और सीबीआई जांच की भी मांग सबसे पहले की थी। इससे भी उनकी छवि में असर पड़ा था। शायद नीतीश कुमार और भाजपा का ध्यान नहीं जा रहा है बल्कि तेजस्वी अपने पिता लालू यादव से दो कदम आगे रख कर चल रहे हैं। जहां राजनीति में जाति और धर्म से ऊपर आजीविका और बुनियादी चीजों का रखा जा रहा है। तेजस्वी यादव को इस बात का भी पूरा ख्याल है कि जो बात वो अपने वोटर से कहना चाहते हैं वो उनक तक पहुंच पा रही है या नहीं? संवाद और संचार दोनों ही ऐसे मामलों में सबसे जरूरी होते हैं।
तेजस्वी की तरफ से लोगों में ये संदेश पहुंचाया जा रहा है कि चुनावी वादे हवा हवाई नहीं हैं। तेजस्वी यादव साफ साफ, सीधे सीधे शब्दों में समझा रहे हैं कि वो एक करोड़ नहीं, सिर्फ दस लाख नौकरी ही देंगे। आंकड़ों की तुलना दिमाग में आसानी से रजिस्टर होती है और तेजस्वी यादव ऐसा ही कर रहे हैं। राष्ट्रीय जनता दल का चुनाव मैनिफेस्टो लालू यादव के जमाने से काफी अलग है औक अब सोशल जस्टिस, मुस्लिम-यादव समीकरण नहीं बात रोजगार के साथ साथ शिक्षा और सेहत की हो रही है।
नीतीश कुमार जहां लालू-राबड़ी शासन के मुकाबले अपनी सरकार के 15 साल के काम की दुहाई दे रहे हैं, तो तेजस्वी यादव नौजवानों की चुनौतियों और भविष्य का बात कर रहे हैं। तेजस्वी यादव को काउंटर करने के लिए लालटेन और एलईडी का फर्क समझाया जा रहा है और वो बिहार के लोगों को बेरोजगारी से निजात दिलाकर उनका जीवन सुधारने की बात कर रहे हैं। तेजस्वी यादव को इस बात से फर्क नहीं पड़ रहा है कि लोगों को समझाया जा रहा है कि अगर आरजेडी सत्ता में आयी तो कश्मीर जैसा आतंक का माहौल बन जाएगा, वो पूरी जिम्मेदारी के साथ गवर्नेंस पर जोर देते नजर आ रहे हैं।
तेजस्वी यादव की रैलियों में उनका भाषण बेरोजगारी की चर्चा और 10 लाख नौकरियां देने के वादे के साथ ही शुरू होता है और खत्म भीष मकसद साफ है एक ही चीज बार बार बतायी जाये तो लोग भी समझने लगते हैं, उस चीज के बारे में सोचने लगते हैं और धीरे धीरे वो बात सबके दिमाग में रजिस्टर हो जाती है। तेजस्वी यादव अब न पिछड़ों की बात कर रहे हैं न अल्पसंख्यकों की और न ही किसी को सांप्रदायिक ताकतों को तूल दे रहे हैं। बल्कि वो तो ये बताने की कोशिश कर रहे हैं कि उनको मौका मिला तो वो क्या क्या करने वाले हैं।