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सियाचिन ग्लेशियर को लेकर अक्सर चर्चा होती रहती है। एक ओर भारत की सेना तो दूसरी ओर पाकिस्तान की सेना यहां हमेशा आंख गड़ाए बैठी हुई नजर आ जाती है।

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सोशल मीडिया पर इतना मत भिड़ जाइए कि रिश्ते ही खत्म हो जाए

एक वक्त था जब सोशल मीडिया का मतलब होता था, लोगों के नजदीक जाना उनसे बातें बनाना, ये जानना कि कोई कहां है और क्या कर रहा है।
Logic Taranjeet 15 August 2020
सोशल मीडिया पर इतना मत भिड़ जाइए कि रिश्ते ही खत्म हो जाए

एक वक्त था जब सोशल मीडिया का मतलब होता था, लोगों के नजदीक जाना उनसे बातें बनाना, ये जानना कि कोई कहां है और क्या कर रहा है। लेकिन आजकल सोशल मीडिया से लोगों की राजनीतिक प्रक्रियाओं को समझा जा रहा है। कौन मोदी भक्त है या फिर कौन गांधी परिवार का चमचा है। जिस सोशल मीडिया का मकसद लोगों को नजदीक लाना था, वो अब धीरे-धीरे लोगों को दूर कर रहा है। सिर्फ राजनीतिक ही नहीं बल्कि लोगों में ज्यादा लाइक और फॉलोवर्स की भी होड़ है। गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड से लेकर पति पत्नी शक करते हैं।

कोई नहीं आएगा मदद के लिए

वहीं दोस्त और रिश्तेदार भी मुंह फुलाये रहते हैं, कि रिप्लाई नहीं करते। ऐसे कई किस्से आप रोज सुनते होंगे। हालांकि इससे किसी को कोई फायदा नहीं होता है। बस सिर्फ मन को संतुष्टि मिलती है कि इतने लोग हमें जानते हैं। मुस्कान डेढ़ के बजाय दो इंच हो जाती है लेकिन अब उसके बाद क्या? लेकिन जब मुसीबत में होंगे तो इनमें से कोई भी न आएगा, गिने-चुने करीबियों को छोड़ दिया जाए तो ये हजारों, लाखों की संख्या अचानक ही एक बड़े खोखले शून्य में परिवर्तित होती दिखेगी।

भक्त और चमचे में बहस

कुछ सालों में एक नया नाटक शुरु हुआ है। वो है भक्त और चमचे में बहस। बहस तो अत्यंत शालीन शब्द है, असल में तो यहां शुरुआत ही गाली से होती है। अब अगर कोई सच में अपने आराध्य की भक्ति की बात करे, तब भी सामने वाले की नजर में मोदी जी का चेहरा ही चमक उठेगा, ये ईश्वर की महिमा समझें या माननीय का प्रताप, ये आप पर निर्भर है। आप किसी को फेंकू कहें तो वो तुरंत आपको पप्पू कह देगा और संकेत दोनों पक्ष समझते हैं।

अब भक्त का अर्थ बना किसी की धुन में इतना अंधा हो जाना कि आंखों के सामने रखे सच को भी अपने कुतर्कों से नकारने लगें। कुछ कट्टरों ने तुरंत एक तोड़ निकाला और सेक्युलर को गाली की तरह परोस दिया। इसी दौरान देशद्रोही शब्द का भी पुनर्जन्म हुआ और एक नई किस्म की नफरत अंगड़ाई लेने लगी। देश खुद ही  दो खेमों में बंट गया है, कल जो मित्र साथ में हंसते-बोलते थे, वो अब अपने-अपने पालों में खड़े होकर एक जंग छेड़ देते हैं।

अजीब है ये लहर

देश में विकास की ये लहर सचमुच अजीब और बेहद खतरनाक है। ऐसा राजनीतिकरण सदियों बाद देखने को मिला है जहां पर आम लोग बेवजह ही भिड़ रहे हैं। लोगों को राजनीति जैसे नीरस विषयों में अचानक ही दिलचस्पी होने लगी है। दरअसल सोशल मीडिया की अंधाधुंध दौड़ में हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं बचा है, किसी एक को चुनने ही मजबूरी हो गई है। अगर चुना नहीं तो आप ढोंगी कहलाये जाएंगे। आप किसी चीज से कनेक्ट नहीं कर पाओगे, न तो व्हाट्सएप्प के फॉरवर्ड समझ आएंगे और टीवी, अखबार बेकार हो जाएंगे।

क्या देशभक्ति का यही पैमाना है

लेकिन इस होड़ में आपके रिश्ते खत्म हो रहे है और जिन्हें सच में देश से मतलब है वो दब जाते हैं। जो लोग किसी भी तरह की कट्टरता को देश पर हावी नहीं होने देना चाहते, जो हत्या में धर्म नहीं खोजते और जिनके लिए एक भारत ही श्रेष्ठ भारत है। ये इस देश का दुर्भाग्य है कि इन चंद लोगों पर ही सबसे ज्यादा प्रश्न उठते हैं और वो हर वक्त अपनी सफाई देते हुए नजर आते हैं। उन्हें बिन पेंदी का लोटा, धर्मनिरपेक्षता की पूंछ और कई निम्नस्तरीय अपशब्दों से भी नवाजा जाता है। लेकिन जो लोग एक नेता की पूजा करते हैं वो खुद को देशभक्त बताने से पीछे नहीं हटते।

भारत के इस रूप की कल्पना हमने कभी नहीं की थी और आखिर ये राजनीतिक दल हमें भिड़ाकर अपना उल्लू सीधा करने के सिवाय और कर ही क्या रहे हैं? उस पर दिक्कत ये कि लोग उल्लू बनने को पूरी तरह से तैयार हैं। उन्हें अपनी सोशल मीडिया छवि की इतनी परवाह है कि अपना भविष्य अंधेरे में डालना कबूल कर लिया। आप करिये अपने नेताओं को खुश लेकिन ये भी गिनते रहिये कि इस चक्कर में आपने क्या क्या खो दिया है।

Taranjeet

Taranjeet

A writer, poet, artist, anchor and journalist.