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शीमैन नाम रख कर LGBTQIA का मजाक तो मत बनाइए

नोएडा के सेक्टर 50 मेट्रो स्टेशन का नाम 'शी मैन' रखा गया। LGBTQIA यानी लेस्बियन (L), गे (G), बाइसेक्शुअल (B), ट्रांसजेंडर (T), क्वीयर (Q), इंटरसेक्स (I) और एस्क्शुअल (A)
Logic Taranjeet 25 June 2020

नोएडा के सेक्टर 50 मेट्रो स्टेशन का नाम ‘ शी मैन ‘ रखा गया है। जिसका मकसद ट्रांसजेंडर अधिकारों को बढ़ावा देना माना गया। इस स्टेशन पर ट्रांसजेंडर लोगों को काम पर रखा जाएगा और विशेष सुविधाएं भी दी जाएंगी। हालांकि ट्रांसजेंडर लोग इसका कितना लाभ उठाएंगे, ये तो बाद की बात है। लेकिन सबसे बड़ा बवाल तो इसके नाम को लेकर ही हो गया है। जाहिर सी बात है, LGBTQIA समुदाय को इस नाम से परहेज है क्योंकि इस नाम में सिर्फ दो जेंडर की ही बात की गई है- औरत और मर्द, जबकि असल सवाल इस समुदाय की विविधता का है। LGBTQIA यानी लेस्बियन (L), गे (G), बाइसेक्शुअल (B), ट्रांसजेंडर (T), क्वीयर (Q), इंटरसेक्स (I) और एस्क्शुअल (A)

केरल में रोजगार देने के प्रयास पहले ही हो चुका है

ऐसा एक प्रयास केरल में दो साल पहले किया जा चुका है और कोच्चि शहर के मेट्रो स्टेशनों पर ट्रांसजेंडर लोगों को काम पर रखा गया था। हाउसकीपिंग और टिकट बेचने के काम में उन्हें लगाया गया था और केरल ट्रांसजेंडर लोगों को सुविधाएं देने वाला राज्य है। वहां पर पुलिस स्टेशनों में ट्रांसजेंडर हेल्प डेस्क बनाए गए हैं। पल्लकड़ सिविल स्टेशन में ट्रांसजेंडर लोग कैंटीन चलाते हैं और ट्रांसजेंडर लोगों के लिए सेफ शेल्टर भी बनाए गए हैं। यहां इस बात का ध्यान रखा गया है कि जेंडर को किसी बाइनरी में न देखा जाए। वहीं शी मैन का विरोध करने वाले स्पेस ऑर्गेनाइजेशन के एक्टिविस्ट अंजन जोशी ने जेंडर पहचान की वकालत की है। उनके हिसाब से ये नाम जेंडर विविधता और जेंडर की पुष्टि न करने वाले लोगों का अपमान है। ट्रांसफोबिक भी है और भद्दा मजाक है। साल 2011 की जनगणना में ऐसे लोगों की संख्या 4,87,803 है जो खुद को ‘पुरुष’ या ‘स्त्री’ के बजाय ‘अन्य’ के तौर पर पहचानते हैं। इसलिए इसका ये मतलब नहीं निकाला जा सकता कि वो पुरुष भी हैं और स्त्री भी। जैसा कि शी मैन के नाम से एहसास होता है और जब आप किसी की आइडेंटिटी के बारे में भी न जानते हों तो फैसलों में ऐसा भौंडापन ही दिखेगा।

असल लड़ाई पहचान को लेकर ही है

LGBTQIA समुदाय की असल लड़ाई पहचान की है। इसकी पुष्टि साल 2014 में खुद सर्वोच्च न्यायालय ने की थी। कोर्ट ने कहा था कि हर शख्स को अपने जेंडर को खुद पहचानने का अधिकार है। सबसे बड़ी बात ये थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 19 (1) (ए) में दर्ज अभिव्यक्ति की आजादी को बहुत प्रभावशाली तरीके से स्पष्ट किया था और कहा कि इसमें अपने जेंडर की पहचान को व्यक्त करने की आजादी भी शामिल है। ऐसा करके अदालत ने इस बात को मान्यता दी कि लिंग पहचान भी अभिव्यक्ति की आजादी का एक हिस्सा है, ठीक उसी तरह जैसे किसी व्यक्ति को अपने विचारों को आजादी से व्यक्त करने की आजादी मिले।

एक विषय क्वीरनेस से भी जुड़ा है

एक मामला क्वीरनेस का भी है। क्वीर शब्द अक्सर LGBTQIA समुदाय से जोड़ा जाता है लेकिन मूल रूप से ये शब्द किसी ऐसे व्यक्ति को संदर्भित करता है जोकि मौजूदा मानदंडों के प्रति आलोचनात्मक सोच और दृष्टिकोण रखता है। इस प्रकार क्वीरनेस ऐसे किसी भी विकल्प का पर्याय है जोकि निर्धारित नियमों से अलग हटकर है। ये शब्द अनेक लोगों को अभिव्यक्त करता है होमोसेक्सुअल, ट्रांस जेंडर, नॉन बायनरी, जेंडर फ्लूड आदि जो कि अपनी दिलचस्पियों और तौर-तरीकों से रूढ़िबद्ध धारणाओं को चुनौती देते हैं। क्वीरनेस जैसे शब्द में जो विविधता है, वो उसे जेंडर और यौनिकता को हाशिए पर पड़े बहुत से लोगों से जोड़ता है, उन लोगों से भी जो कि जाति, वर्ग, जातीयता और नस्ल इत्यादि के इंटरसेक्शंस पर मौजूद हैं।

ट्रांसजेंडर कानून के मसौदा नियम भी विरोधाभासी

ये इतना आसान नहीं, और न ही नीति निर्धारक इस विषय के प्रति संवेदनशील हैं। इसकी मिसाल वो मसौदा नियम हैं जिन्हें हाल ही में 2019 के एक्ट के अंतर्गत अधिसूचित किया गया है। एक्ट ट्रांसजेंडर लोगों के लिए सर्टिफिकेट ऑफ आइडेंटिटी की बात करता है और ड्राफ्ट नियम उन प्रक्रिया को निर्दिष्ट करते हैं जिनके जरिए ट्रांसजेंडर लोग इस सर्टिफिकेट के लिए आवेदन कर सकते हैं। ये हास्यास्पद है कि इसे हासिल करने के लिए उन्हें साइकोलॉजिस्ट की रिपोर्ट भी लगानी होगी। जब एक्ट कहता है कि लोगों को अपने जेंडर की पहचान करने का अधिकार है तो साइकोलॉजिस्ट की रिपोर्ट का क्या मायने है और फिर साइकोलॉजिस्ट की रिपोर्ट में क्या होगा, ये भी साफ नहीं है।

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मसौदा नियम में ये भी कहा गया है कि सर्टिफिकेट सिर्फ उसी व्यक्ति को जारी होंगे, जो आवेदन की तारीख से एक साल पहले तक जिला मेजिस्ट्रेट के क्षेत्राधिकार में आने वाले इलाके में रहते हों और साल 2014 की एक्सपर्ट कमिटी कह चुकी है कि ट्रांसजेंडर लोगों के लिए एक जगह पर लगातार रहना मुश्किल होता है क्योंकि उन्हें अक्सर परिवार वाले ही बहिष्कृत कर देते हैं। इसलिए उनके लिए ये मुश्किल हो सकता है कि वो आवेदन करने से पहले लगातार एक साल की अवधि के दौरान किसी स्थान पर रहने का सबूत दे पाएं।

मसौदा नियम ऐसे व्यक्तियों के लिए सजा तय करते हैं जो ट्रांसजेंडर व्यक्ति का झूठा दर्जा हासिल करने के मकसद से सर्टिफिकेट ऑफ आइडेंटिटी के लिए आवेदन करते हैं। क्योंकि लोगों के पास अपने जेंडर की पहचान करने का अधिकार है, तो अधिकारी ये किस आधार पर तय करेंगे कि कोई व्यक्ति झूठा आवेदन कर रहा है। दरअसल जेंडर पहचान लगातार बदल रही हैं और सेक्सुएलिटी से जुड़े नियम और दस्तूर अब उतने पक्के नहीं रहे क्योंकि लोगों की पसंद बदल रही हैं और वो नियम और दस्तूरों को तोड़ रहे हैं। जेंडर और सेक्सुएलिटी आधारित भेदभाव को खत्म करने के लिए ये जरूरी है कि जेंडर को सिर्फ दो ढांचों में देखने की आदत को खत्म किया जाए। ये भी जरूरी है कि हम हेट्रोनॉर्मेटिविटी पर सवाल उठाएं और हेट्रोनॉर्मेटिविटी, यानी केवल दो प्रकार के लिंग- स्त्री और पुरुष और दोनों तथाकथित अवधारणाओं के आधार पर व्यवहार करें। इसके लिए ये भी जरूरी है कि नीति निर्धारण में लोगों को प्रतिनिधित्व दिया जाए और प्रतिनिधित्व ही आपको सही दिशा में काम करने के लिए प्रेरित करता है।

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A writer, poet, artist, anchor and journalist.