द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट ने अपना ताजा लोकतंत्र सूचकांक घोषित कर दिया है। इस सर्वे में देश के लोकतंत्र की खस्ता हालत का जिक्र किया गया है। इस बारे में पिछले कुछ वक्त से कई बार बात उठी है और बहुत बार कहा गया है कि देश में लोकतंत्र धाराशाही होता जा रहा है। कुछ वक्त पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी इस बात का जिक्र किया था। 24 दिसंबर को किसान आंदोलन के समर्थन में मार्च निकालने और राष्ट्रपति से मुलाकात करने के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मीडिया से बात करते हुए कहा था कि देश में लोकतंत्र कल्पना भर में रह गया है। और आज ये बात सही साबित होती जा रही है।
जब राहुल गांधी ने ये बात कही थी तो सत्तारूढ़ और अहंकार में चूर भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं ने राहुल गांधी का खूब मजाक बनाया था। लेकिन अब लोकतंत्र सूचकांक पर कहने के लिए शब्दों की कमी हो गई है। क्योंकि ये सूचकांक किसी विपक्षी नेता या भाजपा और उसकी मोदी सरकार के आलोचक ने नहीं बनाया है। इसे अंतरराष्ट्रीय साजिश नहीं बना सकते हैं। द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट का ये सूचकांक असंदिग्ध रहा है।
इसे दुनिया भर में लोकतंत्र की वास्तविक स्थिति के आंकलन के लिए बेझिझक इस्तेमाल किया जाता है। इससे जुड़ी डेमोक्रेसी इन सिकनेस एंड इन हेल्थ शीर्षक रिपोर्ट के अनुसार देश का लोकतंत्र 2020 में तो 2019 के मुकाबले 2 अंक नीचे गिर 51वें से 53वें स्थान पर आ गया है। लेकिन 2014 से पहले इसकी रैंकिंग 7.29 अंकों के साथ 27वीं थी, जो कि अब 6.61 अंकों के साथ 53वीं पर लुढ़क गयी है।
जैसा कि रिपोर्ट में बताया गया है, भाजपा की पिछले 6-7 साल की सत्ता लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछे हटने और नागरिकों की स्वतंत्रता पर कार्रवाई के रास्ते चलकर आधे लोकतंत्र को खा गई है। मोदी सरकार ने भारतीय नागरिकता की अवधारणा में धार्मिक तत्व को शामिल किया है और कई आलोचक इसे भारत के धर्मनिरपेक्ष आधार को कमजोर करने वाले कदम के तौर पर देखते हैं, जबकि कोरोनावायरस की वैश्विक महामारी से निपटने के तरीके के कारण 2020 में देश में नागरिक अधिकारों का और दमन हुआ है। इसी का नतीजा है कि इस सूचकांक में भारत को त्रुटिपूर्ण यानी की लंगड़े लोकतंत्र के तौर पर दर्शाया गया है।
ये स्थिति 2 कारणों से काफी ज्यादा परेशान करती है, पहला तो ये गिरावट लगातार हो रही है। जिससे साबित हो रहा है कि ये कोई गलती नहीं हो रही है बल्कि सोची समझी रणनीति है। दूसरा, क्योंकि ये एक सोची-समझी रणनीति है तो उम्मीद भी नहीं की जा सकती है कि आगे आने वाले वक्त में इसमें किसी तरह का कोई सुधार होगा। पिछले साल जम्मू-कश्मीर में वहां के निवासियों को विश्वास में लिए बिना ही फैसले लिए और संशोधित नागरिकता कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को लेकर शुरू हुए विद्रोह से इस साल कृषि कानूनों के विरुद्ध किसानों के आंदोलन और उसके दमन के सिलसिले तक देश के लोकतंत्र को संभाल पाने में सरकार की नाकामी सबकुछ कह देती है।
जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 या राज्य की विशेष स्थिति ही खत्म नहीं की गई बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकार भी दांव पर लगा दिये गये थे। लंबे वक्त तक इंटरनेट पर पाबंदी, मीडिया पर लगाम और विपक्ष पर कार्रवाई जैसे कार्यों से भी लोकतंत्र को बाधित किया जाता रहा था। अब राजधानी दिल्ली में किसान आंदोलन से निपटने के नाम पर भी वैसे ही तरीके अपनाए जा रहे हैं। जहां किसानों को रोकने के लिए न सिर्फ सड़कें खुदवाई या उन पर कीलें ठुकवाई जा रही हैं, बल्कि ऐसी कंटीली तारें भी लगाई जा रही हैं, जो कि देश की सीमाओं पर दुश्मनों को रोकने के लिए भी नहीं लगाई जाती है।
ऐसे में ये सवाल बार-बार किया जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी जिस न्यू इंडिया का जिक्र करते हैं, उसकी ओर बढ़ने में उनकी सरकार के फैसले लोकतंत्र के लिए इतने घातक क्यों साबित हो रहे हैं? क्यों उनके लिए सत्ता की सुरक्षा इतनी अहम हो गई है कि कोरोना जैसी आपदा को भी लोकतंत्र को सीमित करने और खाई में गिराने के सरकारी अवसर में बदल दिया जाता है?