
देश में चुनावी मौसम शुरु हो गया है, सबसे पहले तो बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन बहुत राजनीतिक दलों ने अभी से बाकी राज्यों की भी तैयारियां शुरु कर दी है। जैसे कि अभी अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी न ऐलान कर दिया है कि वो उत्तराखंड में बोने वाले विधानसभा चुनाव 2022 में सभी 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी।
यूपी की राजनीति में एक्टिव हुई आम आदमी पार्टी अब पहाड़ों में भी चढ़ने की कोशिश करने लगी है। इससे पहले दिल्ली में तो जनता के दिलों पर कब्जा किया ही हुआ और साथ ही पंजाब में भी अरविंद केजरीवाल का रुतबा है। लेकिन उत्तराखंड बिलकुल नई जमीन है तो ऐसे में वहां पर आम आदमी पार्टी के लिए राहें आसान नहीं होने वाली है।
अरविंद केजरीवाल ने अपने ऐलान में बेशक उम्मीदों पर चुनावों लड़ने की बात कही है, लेकिन राज्य में पार्टी को अभी जमीनी स्तर पर खुद को तैयार करने की काफी जरूरत होगी। इतना ही नहीं इस पहाड़ी राज्य की परिस्थितियों और राजनीति को दिल्ली में बैठ कर नहीं समझा जा सकता है। सबसे पहले तो आपको ये बताते हैं कि उत्तराखंड में चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने क्या कहा।
केजरीवाल का सीधा कहना है कि वो दिल्ली मॉडल को पहाड़ में लेकर जाना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि दिल्ली में पहाड़ों से आए बहुत लोग रहते हैं, उनमें से कई लोगों ने मुझे आकर कहा कि आप उत्तराखंड में आकर चुनाव लड़िए।
हमने इसके लिए उत्तराखंड में सर्वे कराया है और इसमें उत्तराखंड के 62 फीसदी लोगों ने कहा कि पार्टी को वहां पर चुनाव लड़ना चाहिए। उत्तराखंड में तीन मुद्दे हैं रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा, जिसकी वजह से पलायन हो रहा है। उत्तराखंड में दिल्ली मॉडल की काफी चर्चा है। इसीलिए हम दिल्ली मॉडल को पहाड़ में लेकर जाएंगे।
अब सबसे पहली बात तो ये है कि उत्तराखंड में साल 2022 की शुरुआत में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिसके लिए करीब डेढ़ साल का वक्त बचा है। ऐसे में आम आदमी पार्टी के पास राज्य में न तो कोई पॉलिटिकल बेस है और न ही कोई बड़ा चेहरा अब तक सामने आया है। इसलिए पार्टी के लिए ये सबसे बड़ी चुनौती होगी।
जिला स्तर से लेकर ब्लॉक स्तर तक पार्टी को अपना संगठन तैयार करना होगा। इसे लेकर केजरीवाल ने कहा कि चुनाव संगठन से नहीं बल्कि लोगों की उम्मीदों पर लड़ा जाता है। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस से लोगों की उम्मीद खत्म हो चुकी है।
अब भले ही सीएम केजरीवाल उम्मीदों पर चुनाव लड़ने की बात कर रहे हों, लेकिन अगर समय रहते जमीनी स्तर पर काम नहीं किया गया तो भाजपा और कांग्रेस के मजबूत संगठन के सामने आम आदमी पार्टी की उम्मीदों पर पानी फिर सकता है। दरअसल उत्तराखंड में केजरीवाल खुद को कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बताने वाले हैं।
आम आदमी पार्टी के इस फैसले को देखकर कहीं न कहीं ये भी लगता है कि फैसला काफी बेमन से लिया गया है, पार्टी इसे एक प्रयोग की तरह देख रही है। क्योंकि अगर पार्टी का राज्य में चुनाव लड़ने का मन था तो तैयारी कई महीने या एक साल पहले से होनी चाहिए थी। क्योंकि राज्य में पार्टी की अभी तक भी कोई खास तैयारी नजर नहीं आ रही है।
उत्तराखंड में चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद आम आदमी पार्टी ने ये अब तक साफ नहीं किया कि स्थानीय तौर पर कौन पार्टी का चेहरा होगा। क्योंकि उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जहां पर लोगों को ऐसा नेता चाहिए होता है, जो उनसे किसी न किसी तरह से जुड़ा हो। भाजपा और कांग्रेस भी विधानसभा चुनावों में ऐसी ही चेहरों को मैदान में उतारते हैं, जो किसी न किसी तरीके से खुद को उस क्षेत्र की जनता के साथ जोड़ते हैं।
आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के संगम विहार से विधायक दिनेश मोहनिया को उत्तराखंड का प्रभारी नियुक्त किया है। जो इस वक्त उत्तराखंड में काफी एक्टिव हो चुके हैं। पार्टी के ऐलान के बाद ही उन्होंने भी देहरादून में पत्रकारों को पार्टी का पूरा एजेंडा बताया, लेकिन दिनेश मोहनिया कोई ऐसा नाम नहीं हैं, जिनके नाम से पार्टी उत्तराखंड में अपना संगठन खड़ा कर सकती है। हालांकि ये भी हो सकता है कि जैसे भाजपा ने दिल्ली में पीएम मोदी के ही चेहरे पर चुनाव लड़ा था, वैसे ही आम आदमी पार्टी भी अरविंद केजरीवाल के चेहरे पर ही चुनावी मैदान में उतरे।
आम आदमी पार्टी भले ही दिल्ली की तरह उत्तराखंड में तीसरे विकल्प के तौर पर अपना दावा ठोक रही हो, लेकिन उत्तराखंड में पिछले 20 सालों से भाजपा और कांग्रेस का दबदबा है। इन दोनों पार्टियों ने कभी किसी तीसरी पार्टी को विकल्प नहीं बनने दिया है। इसका बड़ा कारण ये है कि दोनों पार्टियों का राज्य में अपना कोर वोटर है।
राज्य के ग्रामीण इलाकों में आज भी चेहरा देखकर नहीं बल्कि कमल और हाथ का निशान देखकर वोट दिया जाता है। जिन्हें इन पार्टियों के पुश्तैनी वोटर्स कहा जा सकता है। इन दो निशानों के अलावा पहाड़ी इलाकों के ज्यादातर लोग किसी तीसरी निशान का बटन नहीं दबाते हैं। इसी कारण 20 सालों में कई कोशिशों के बावजूद तीसरी पार्टी इस राज्य में नहीं आ सकी है।
उत्तराखंड में पिछले चुनाव यानी 2017 विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के बीच ही टक्कर थी। मायावती की पार्टी ने कई बार कोशिश तो जरूर की, लेकिन उनका हाथी हर बार गिर गया। वहीं लेफ्ट भी सिर्फ नाम के लिए ही उम्मीदवार उतारती है। उधर स्थानीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल अपने पतन की ओर है। हालांकि ये वही पार्टी है, जिसने उत्तराखंड आंदोलन में एक अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन आज राज्य में इसका अस्तित्व खत्म सा ही है।
यहां चुनावी गर्मी शुरू होते ही ठाकुर बनाम ब्राह्मण पॉलिटिक्स भी शुरू हो जाती है। ऐसे में भाजपा और कांग्रेस दोनों के बीच बैलेंस बनाकर चलती हैं। उत्तराखंड में करीब 60 फीसदी वोट ठाकुर और ब्राह्मणों के हैं। जिनमें से करीब 35 फीसदी वोटर्स ठाकुर हैं और 25 फीसदी वोटर ब्राह्मण समुदाय से आते हैं। तो अगर आम आदमी पार्टी सूबे में उतर रही है तो उसे भी इस बात का खास ध्यान रखना होगा।
अब आखिर में बात करते हैं आम आदमी पार्टी की उत्तराखंड में क्या चुनौतियां होंगी और किन मुद्दों से वो बाकी दोनों दलों से अलग है। तो सबसे पहले पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती संगठन को खड़ा करना और जमीनी स्तर पर इसे मजबूत करना होगी और साथ ही स्थानीय चेहरों को अपने पक्ष में लान में भी कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। तभी जा कर कहीं आम आदमी पार्टी एक मुकाबला दे सकती है। नहीं तो इनका हाल भी बाकी पार्टियों की तरह हो जाएगा।
उत्तराखंड में सबसे बड़ी समस्या पलायन की है और इसका सबसे बड़ा कारण खराब स्वास्थ्य व्यवस्था, बदहाल शिक्षा व्यवस्था और रोजगार की कमी है। ऐसे में केजरीवाल को अपना दिल्ली मॉडल बहुत बड़े रूप से पेश करना होगा। इसका एक ठोस ब्लू प्रिंट आम आदमी पार्टी के पास होना चाहिए जो गरीब से गरीब और अमीर से अमीर को कनेक्ट करे। हालांकि ये मुद्दे हमेशा से ही केजरीवाल के मजबूत रहे हैं।