
तूतीकोरिन में जयराज और बेनिक्स के साथ पुलिस ने जो व्यवहार किया, वो बेहुदगी भरा है। लॉकडाउन का पालन न करने पर इस बाप-बेटे के साथ जो बर्ताव किया गया, वो किसी भी स्थिति में किसी भी व्यक्ति के साथ जायज नहीं ठहराया जा सकता है। इन दोनों को गंभीर शारीरिक यातना दी गई, यहां तक की इनका यौन शोषण भी किया गया। इस मुद्दे से जिक्र होता है कि एंटी टॉर्चर कानून का जिसकी जरूरत हमारे देश में बहुत ज्यादा है। ये एक ऐसा एंटी टॉर्चर कानून हो जो पुलिसिया या सैन्य तंत्र की निरंकुशता और बर्बरता को काबू में करने के लिए जरूरी है।
हमारे देश में कस्टोडियल डेथ के हजारों मामले हैं। नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टॉर्चर (एनसीएटी) की एक रिपोर्ट एनुअल रिपोर्ट ऑन टॉर्चर 2019 में कहा गया कि साल 2019 में भारत में पुलिस कस्टडी में कुल 1731 लोगों की मौत हुई थी। यानी की रोजाना 5 लोग। इतना ही नहीं रिपोर्ट में कहा गया है कि हिरासत में अत्याचार के शिकार होने वाले ज्यादातर लोग गरीब और मार्जिनलाइज्ड समूह के होते हैं, जैसे दलित, आदिवासी और मुस्लिम। इन लोगों की संख्या देश की जनसंख्या में 39% है जबकि भारतीय जेलों में उनकी संख्या 53% है और इन मामलों में उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, पंजाब और बिहार सबसे ऊपर आते हैं।
ऐसे कितने मामलें तो सरकारी रिकॉर्ड्स में दर्ज भी नहीं होते हैं। एनसीआरबी के 2018 के आंकड़े पुलिस कस्टडी में 70 लोगों की मौत की जानकारी देते हैं और इनमें सबसे ऊपर गुजरात है। इन 70 लोगों में से सिर्फ तीन के लिए पुलिस का कहना है कि उनकी मौत शारीरिक उत्पीड़न के चलते हुई, जबकि बाकी की मौतों का कारण बीमारी बताया गया है और 17 मौतों को सुसाइड बताया गया है और 7 मामलों में ये कहा गया है कि इनकी मौत कस्टडी से पहले की चोटों के कारण हुई है। जबकि 7 कस्टडी से भागने के कारण मौत का शिकार हुए और 1 सड़क दुर्घटना में मरा। लेकिन एनसीएटी का दावा है कि ऐसे मामलों में शामिल पुलिसकर्मियों को किसी तरह की कोई सजा नहीं होती। जबकि साल 2018 के एनसीआरबी आंकड़ों से ही पता चलता है कि पुलिस वालों के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन के 89 मामले दर्ज किए गए थे। इनमें गैर कानूनी रूप से हिरासत में रखने के भी मामले शामिल थे और इसी तरह कश्मीर से लेकर मणिपुर तक में नागरिकों पर सैन्य अधिकारियों की यातना की खबरें भी आती रहती हैं।
लगातार एंटी टॉर्चर कानून बनाए जाने की सिफारिश की जा रही है। साल 1987 में संयुक्त राष्ट्र ने यातना और अन्य क्रूर, अमानवीय एवं अपमानजनक व्यवहार या सजा के विरुद्ध एक कन्वेंशन को पास किया था। भारत सहित सिर्फ 9 देशों ने इस कन्वेंशन को रैटिफाई नहीं किया और फिर साल 1997 में भारत ने इस पर हस्ताक्षर किए और कहा कि वो पुलिसिया यातना के खिलाफ कानूनी उपाय के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन रैटिफिकेशन फिर भी बाकी है क्योंकि भारत ने इस पर कोई कानून नहीं बनाया है।
2010 में लोकसभा ने प्रिवेंशन ऑफ टॉर्चर बिल पारित किया था लेकिन राज्यसभा ने संशोधनों के साथ इसे सिलेक्ट कमिटी को भेज दिया था। इसके बाद 2017 और 2018 में गैर सरकारी सदस्यों के बिल के तौर पर इस विषय को दोनों सदनों में उठाया गया, लेकिन पास न हो सका। साल 2017 में जब भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में तीसरे यूनिवर्सल पीरिऑडिक रिव्यू (यूपीआर) को पेश किया तो उसमें एंटी टॉर्चर बिल का कोई उल्लेख नहीं था।
वहीं सर्वोच्च न्यायालय ने 2017 में कहा था कि मौत की सजा पर लंबे समय तक फैसला न लिए जाने के कारण अक्सर आरोपियों को यातना से गुजरना पड़ता है। इसी से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने लॉ कमीशन को समीक्षा का सुझाव दिया था। इसके बाद कमीशन ने जस्टिस बी. एस. चौहान की अध्यक्षता में तीन महीने में ही अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। इस सिलसिले में कमीशन ने ये गौर किया था कि मौजूदा भारतीय कानूनों में टॉर्चर यानी यातना की कोई संपूर्ण परिभाषा नहीं दी गई है। उसने ये सुझाव दिया था कि यातना के पीड़ितों, शिकायतकर्ताओं और गवाहों को संभावित हिंसा और दुर्व्यवहार से सुरक्षित रखने के लिए प्रभावी व्यवस्था की जानी चाहिए। एंटी टॉर्चर प्रिवेंशन बिल, 2017 का मसौदा ऐसे लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को देता है।