भारतीय जनता पार्टी (BJP) इस वक्त अपने राजनीतिक सफर के सबसे स्वर्णिम काल में है। लेकिन फिर भी राजनीतिक दल को उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में काफी संघर्ष करना पड़ रहा है आखिर ऐसा क्यों?
यूपी प्लस योगी बहुत उपयोगी…. योगी शासन में कोई ‘बाहुबली’ नहीं दिखता, केवल ‘बजरंगबली’ दिखते हैं…. जब मैं दूसरे प्रदेशों में जाता हूं तो एक ही बात सुनने में आती है कि यूपी की सरकार बहुत असरदार है
ऐसी बातें आजकल आप काफी सुन रहे होंगे। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ की तारीफ में ये कसीदे इस वक्त सत्ताधारी बड़े-बड़े नेता पढ़ रहे हैं। लेकिन यूपी की सियासत में इन दिनों जो हो रहा है वो इन बयानों के खोखलेपन को जगजाहिर कर रहा है। ऐसा लग रहा है कि न योगी का ”काम”, न दिल्ली के बड़े-बड़े नाम और न ही ‘श्रीराम’ भाजपा के लिए किसी काम के साबित हो रहे हैं। प्राइम टाइम और सोशल मीडिया के गोदी एंकरों से अलग देखें तो यूपी में भाजपा के डर की कहानियां सामने आ जाएंगी।
योगी कैबिनेट के तीन मंत्रियों जिनमें स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी शामिल है, उन्होंने चुनाव से ठीक पहले पार्टी छोड़ दी और अभी इन खबरों से भाजपा आलाकमान बाहर निकल ही रहा था कि 11 विधायकों के चले जाने की खबरें फैल गई। इतने में यूपी भाजपा ने अपनी पहली उम्मीदवारों की सूची निकाल दी। इस लिस्ट ने काफी कुछ बयां कर दिया। सीएम योगी के अयोध्या से चुनाव लड़ने की खबरें चलीं थी। खबरें इस अंदाज में चलीं कि उन्हें सिर्फ कयास नहीं माना जा सकता था। लेकिन फिर आखिरी वक्त में ऐसा क्या हुआ कि योगी को गोरखपुर के अपने सेफ हाउस की तरफ रुख करना पड़ा।
जिस अयोध्या को भारतीय जनता पार्टी ट्रॉफी की तरह दिखाती है और जिस अयोध्या के चक्कर योगी आदित्यनाथ पिछले 5 साल में 42 बार लगा चुके हैं, क्या वहां पर जीत का पक्का यकीन नहीं था? हिंदुत्व के एजेंडे के तहत किए गए तमाम कामों में अयोध्या सबसे ऊपर है, फिर उस अयोध्या पर ऐतबार क्यों नहीं?
ब्राह्मण योगी से नाराज हैं, ऐसी बातें पार्टी के अंदर और बाहर से कई बार हुईं हैं, ऊपर से स्वामी प्रसाद मौर्य एंड कंपनी के इस्तीफों से एक बात साफ हो गई कि भाजपा ने दलितों, पिछ़ड़ों को नजरअंदाज कर दिया है। नतीजा देखिए कि भाजपा की पहली लिस्ट में 44 टिकट ओबीसी, 19 दलितों और 10 टिकट ब्राह्मणों को दिए गए हैं। सहारनपुर देहात की सामान्य सीट से भी एससी जयपाल सिंह को टिकट दिया गया है, तो हिंदुत्व-हिंदुत्व का जाप करने वाली पार्टी, विकास के बड़े-बड़े दावे और क्राइम के मोर्चे पर जबरदस्त काम करने का दम भरने वाले मोदी-योगी को भी जाति की शरण में आना पड़ा है। अब सवाल ये है कि जब जाति के आधार पर ही टिकट बांटना था तो स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी, दारा सिंह चौहान को क्यों जाने दिया?
कड़वा सच ये है कि यूपी विधानसभा में सरकार भले ही हुंकार भरे कि कोविड की दूसरी लहर में कोई भी बिना ऑक्सीजन के नहीं मरा, लेकिन उस दौर में जो लोग खून के आंसू रोए हैं, उनकी पलकें अब भी गीली हैं। सच ये है कि मोदी भले ही काशी के मंच से कोरोना के खिलाफ जंग में योगी सरकार की नाकामी पर पर्दा डालने की कोशिश करें लेकिन प्रयाग में गंगा किनारे दफ्न लाशों से जब रेत हटी तो सरकार की नाकामी भी बेपरदा हो गई। भाजपा आज भले ही कोरोना कंट्रोल पर खुद को मेडल दे लेकिन बदइंतजामी पर बिलखते मोहनलाल गंज से भाजपा सांसद कौशल किशोर को लोग कैसे भूलें?
शाह को भले ही यूपी में अब कोई बाहुबली नहीं दिखता हो, लेकिन विकास दुबे की गोलियों से छलनी यूपी पुलिस के जवानों के शवों को पूरे देश ने देखा है? सच है कि रोजगार से लेकर शिक्षा और सेहत तक पर यूपी सरकार का स्कोर खराब है और जिस मुद्दे पर पांच सालों में सबसे ज्यादा काम किया, वो पूरा पड़ता नहीं दिख रहा है।
”अयोध्या के बाद मथुरा की बारी”, सीएए-एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन के सांवैधानिक हक को गैर कानूनी तरीके से दबाना। ये सब करके एक समुदाय को परेशान करना और दूसरे को खुश करने की कोशिश करना चुनावी रणनीति हो सकती है लेकिन क्या हो जब दूसरा समुदाय कोरोना से लेकर महंगाई और बेरोजगारी से खुद हलकान हो जाए।
100 रुपए लीटर पेट्रोल, महंगी बिजली, लखीमपुर के किसानों को रौंदना, हाथरस कांड, उन्नाव की बेटी पर जुल्म और जुल्म करने वाले को लंबे वक्त तक बचाने की बेशर्म कोशिश। आज मीडिया चैनलों पर चुनावी चर्चा में भले ही इन मुद्दों को जगह नहीं मिलती, लेकिन ये मुद्दे आज भी आम आदमी के दिमाग में हैं। लोगों को याद है कि कैसे कोरोना से मरते अपने रिश्तेदार के लिए सोशल मीडिया पर मदद मांगने को सरकार के खिलाफ साजिश बता दिया गया था। कैसे जायज प्रदर्शन को भी राजद्रोह की कैटेगरी में ला दिया गया। एंटी इंकम्बैंसी फैक्टर के डर का आलम ये है कि पहली ही लिस्ट में 20 से ज्यादा मौजूदा विधायकों को टिकट देना मुनासिब नहीं समझा गया। थोक के भाव में मंत्रियों और विधायकों के जाने के पीछे ये भी वजह बताई जा रही है कि थोक के भाव में मौजूदा विधायकों के टिकट काटे जाएंगे।
पार्टी के अंदर ब्राह्मण नेताओं की नाराजगी भी कुछ कम नहीं है। दिल्ली से भेजे गए एके शर्मा पर मोदी-योगी के बीच तनाव और केशव प्रसाद मौर्य और योगी के बीच अनबन की चर्चा हो ही जाती है। ये नॉर्मल तो नहीं ही था कि मौर्य और चौहान के जाने पर डैमेज कंट्रोल के लिए केशव प्रसाद मौर्य आगे आए लेकिन योगी ने एक शब्द नहीं कहा। दिक्कत ये है कि भाजपा का स्टार पावर लगातार फेल हो रहा है। बंगाल, बिहार, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के सबक सबके सामने हैं लेकिन पार्टी मानने को तैयार नहीं है। ये तो मध्य प्रदेश, हरियाणा, गोवा, मणिपुर, कर्नाटक के जुगाड़ हैं कि सच अपने पूरे स्वरूप में दिखता नहीं।
एक तरफ न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर एकतरफा शोर, सबसे उन्नत चुनावी मशीनरी, मनी पावर, केंद्रीय एजेंसियों का डर और दूसरी तरफ बिखरा हुआ विपक्ष-इसके बावजूद कहीं कोई अकेला तेजस्वी भारी पड़ जाता है तो कहीं कोई अखिलेश चुनौती खड़ी कर देता है। याद रखिए ये भाजपा का कथित रूप से गोल्डेन एज है, तब ये हालत है। विपक्ष की आधी-अधूरी मेहनत और उसमें इतना बिखराव न हो तो देश और यूपी की सियासी तस्वीर शायद कुछ और हो। हर सीट के समीकरणों पर बारीक काम और चुनाव के आखिरी दिनों में बेजोड़ मेहनत भाजपा को बढ़त देती है, शायद इस बार भी इससे फायदा होगा, लेकिन पार्टी यूपी में जीत को लेकर आश्वस्त है, ऐसा नहीं लगता है।