जैसे ही उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Election 2022) की तारीखों का ऐलान हुआ, तभी से भारतीय जनता पार्टी (BJP) के कई बड़े नेताओं ने समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया है। इसे अखिलेश यादव का बड़ा मास्टर स्ट्रोक और योगी आदित्यनाथ की एक बहुत बड़ी विफलता बताई जा रही है। ये भाजपा के लिए इसलिए भी चिंता का विषय है, क्योंकि इस चुनाव में अखिलेश यादव गैर यादव ओबीसी को अपने साथ जोड़ना चाहते थे। वो कुछ हद तक इसमें सफल भी हुए हैं और ये वही गैर यादव ओबीसी वोट है, जिसने साल 2017 के विधानसभा और साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जीत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
ऐसे में समझते हैं कि उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोटों का गणित क्या है और साल 2007 से लेकर अब तक किस तरीके से इन ओबीसी ने अपनी ताकत दिखाई है।
उत्तर प्रदेश में 44% ओबीसी, 20.1% दलित (एससी), 0.1% एसटी, 14.2% फॉरवर्ड कास्ट और 20% मुस्लिम हैं। इन जातियों के समीकरण को सही तरीके से साधने के लिए ही चुनाव से ठीक 5 महीने पहले योगी आदित्यनाथ मंत्रिमंडल का विस्तार किया गया, जिसमें 3 नए चेहरों को शामिल कर एससी-एसटी के 11 मंत्री बनाए गए थे। वहीं, ओबीसी के 3 और मंत्रियों को भी शामिल किया गया था। लेकिन इस विस्तार के बाद भाजपा को बड़ा झटका ओपी राजभर ने दिया और उनके नेतृत्व वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) ने भाजपा से नाता तोड़ लिया था।
अब वो समाजवादी पार्टी के साथ जु़ गए हैं और इसके बाद स्वामी प्रसाद मौर्य सहित 3 मंत्री और 11 विधायकों ने भाजपा को छोड़ दिया है। साल 2016 में स्वामी प्रसाद मौर्य मायावती का साथ छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे और साल 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने गैर यादव ओबीसी को भाजपा से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यही वजह थी कि चुनाव जीतने के बाद योगी सरकार मे मंत्री बना दिए गए थे।
हाल ही में हुए लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। ये बताते हैं कि यूपी में भाजपा को लगातार जीत दिलाने में ओबीसी की कितनी बड़ी भूमिका है। साल 2007 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में 5% यादव, 42% कुर्मी-(कोइरी)कुशवाहा और 17% अन्य ओबीसी वोट मिले थे।
साल 2009 के लोकसभा चुनाव में ये वोट प्रतिशत बढ़ गया था और यादवों का 6% वोट, कुर्मी-(कोइरी)कुशवाहा का 20% और अन्य ओबीसी का 29% वोट मिला था। वहीं साल 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 9% यादव वोट, 20% कुर्मी-(कोइरी)कुशवाहा और 17% अन्य ओबीसी वोट मिला था। लेकिन इसके बाद के चुनावों में भाजपा को कुर्मी-(कोइरी)कुशवाहा और अन्य ओबीसी के खूब वोट मिले।
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 27% यादव, 53% कुर्मी-(कोइरी)कुशवाहा, 60% अन्य ओबीसी वोट मिले थे। साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 10% यादव, 59% कुर्मी-(कोइरी)कुशवाहा और 62% अन्य ओबीसी वोट मिले थे। साल 2019 में ये आंकड़ा और तेजी से बढ़ा और पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को 23% यादव वोट, 80% कुर्मी-(कोइरी)कुशवाहा और 72% अन्य ओबीसी वोट मिले थे। यानी की 2012 से लेकर 2019 तक भाजपा के खाते में अन्य ओबीसी के वोट शेयर करीब 4 गुना बढ़े हैं। इसी को देखते हुए भाजपा ने केशव प्रसाद मौर्य को डिप्टी सीएम, स्वतंत्र देव को भाजपा प्रदेश प्रमुख और धर्मेंद्र प्रधान को चुनाव का प्रभारी बनाया था। धर्मेंद्र प्रधान ओबीसी से आते हैं।
अन्य ओबीसी का क्या महत्व है, इसे कुछ आंकड़ों और लोकसभा चुनाव 2019 के जरिए भी समझते हैं। साल 2019 में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ा था। इसे महागठबंधन नाम दिया गया था। हालांकि गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में इस महागठबंधन का प्रयोग सफल रहा था लेकिन लोकसभा में फेल साबित हुआ था। इसके पीछे कई वजहें थीं, लेकिन अन्य ओबीसी का भाजपा के साथ जाना एक बड़ी वजह साबित हुई।
फॉरवर्ड कास्ट, कुर्मियों और कोइरी वोट के साथ अन्य ओबीसी ने भाजपा का साथ दिया था। इनकी संख्या इतनी ज्यादा थी कि महागठबंधन का जाटव, मुसलमान और यादव वोट टिक नहीं सका था। चुनाव के बाद सीएसडीएस ने एक आंकड़ा जारी किया था, जिसके मुताबिक साल 2019 में महागठबंधन को कुर्मी-कोइरी ने सिर्फ 14%, अन्य ओबीसी ने 18%, जाट ने 7% वोट दिया था। वहीं भाजपा प्लस को कुर्मी-कोईरी ने 80%, अन्य ओबीसी ने 72% और जाट ने 91% वोट किया था।
अब वापस आते हैं भाजपा से ओबीसी के कुछ नेताओं का एसपी में जाने पर, ऐसा नहीं है कि स्वामी प्रसाद मौर्य ही भाजपा के सबसे बड़े ओबीसी चेहरा थे। केशव प्रसाद मौर्य भी हैं और पार्टी ने उन्हें डिप्टी सीएम भी बनाया हुआ है। लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य के सपा में जाने के बाद केशव मौर्य की जिम्मेदारी बढ़ गई है। सीधे उनके कंधों पर अन्य ओबीसी वोटरों को लाने का जिम्मा आ गया है। तीन दशक से यूपी की राजनीति में सक्रिय स्वामी प्रसाद मौर्य को भी साबित करना होगा कि पिछड़ा वर्ग और कोइरी समाज में उनका जनाधार है।