
जब 2014 का लोकसभा चुनाव हो रहा था तो उत्तर भारत के ज्यादातर हिस्से में एक ही लहर थी और वो नरेंद्र मोदी की थी। उस दौरान कई नारे गूंज रहे थे, ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’, अबकी बार मोदी सरकार, लेकिन एक राज्य था जो इन नारों से परे कुछ अलग ही अपने जहन में बसाए बैठा था। वो था पंजाब, जहां पर उलटी नदी बह रही थी। पंजाब के मतदाताओं को कुछ महीने पहले ही अस्तित्व में आई आम आदमी पार्टी एक बेहतर विकल्प के रूप में नजर आ रही थी। यही कारण था कि पहले ही लोकसभा चुनाव में इस पार्टी ने पंजाब की 13 लोकसभा सीटों में से 4 पर कब्जा किया और वो भी पटियाला, फतेहगढ़ साहिब, फरीदकोट और संगरूर जैसी नामी सीटों पर, जबकि मोदीमय बीजेपी सिर्फ 2 सीटों पर ही सिमट गई थी।
पंजाब में आम आदमी पार्टी के इस प्रदर्शन को देख लगा कि राज्य में अगला मुख्यमंत्री इस पार्टी से बन सकता है। खुद केजरीवाल और उनकी टीम ने भी ये सपने बुनने शुरु कर दिए थे। लेकिन 2017 में हुए विधानसभा चुनाव से पहले पंजाब में 117 में से सिर्फ 20 सीटें ही जीत सकी थी। वहीं अब 2019 में स्थिति और ज्यादा अलग हो चुकी है, माना जा रहा है कि प्रदेशाध्यक्ष भगवंत मान की संगरूर सीट भी सुरक्षित नहीं हैं। ऐसे में सवाह है कि पंजाब की राजनीति में पिछले 5 सालों में ऐसा क्या हुआकि आम आदमी पार्टी अर्श से फर्श पर आती हुई दिख रही है?
दरअसल इस सब की शुरुआत साल 2015 में हुई जब पार्टी विरोधी गतिविधियों की वजह से प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को बाहर किया गया, जिसका सीधा असर आप की पंजाब इकाई पर पड़ा। पार्टी के चार में से तीन सांसद धर्मवीर गांधी, हरिंदर सिंह खालसा और साधु सिंह भूषण और यादव के काफी करीबी थे, ये तीनों सांसद पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से दूर होते गए। उस वक्त पार्टी हाईकमान दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली जीत की खुशी में डूबा हुआ था। वहीं फिर साल 2016 में गांधी और खालसा को भी पार्टी विरोधी घोषित कर दिया गया था। तब इन सभी नेताओं ने आरोप लगाया था कि पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल किसी तानाशाह की तरह बर्ताव कर रहे हैं।
आम आदमी पार्टी ने पंजाब में पदाधिकारियों के चयन में भी कई गलतियां की है। पहले पार्टी प्रदेशाध्यक्ष पद के लिए एचएस फुल्का हर तरह से काबिल उम्मीदवार माने जा रहे थे, लेकिन वो 2014 में थोड़े अंतर से लुधियाना लोकसभा सीट जीतने से चूक गए थे। आपको बता दें कि राज्य में फुल्का अपने दम पर 1984 के दंगा पीड़ित सिखों की लड़ाई लड़ने वाले वकील के तौर पर खासे मशहूर हैं। वहीं दूसरे विकल्प के रूप में भगंवत सिंह मान को चुन सकती थी। लेकिन अरविंद केजरीवाल ने प्रदेश संगठन की बागडोर सुचा सिंह के हाथ में दे दी। सिंह को जनता जानती तो थी लेकिन पहले अकाली दल, फिर निर्दलीय और कांग्रेस की तरफ से चुनाव लड़ने की वजह से उनकी छवि दल-बदलू वाली थी। इस वक्त पार्टी में गुटबाजी के बीज पड़ने लगे थे। इसके बाद बची-खुची कसर तब पूरी हो गई जब प्रदेश संगठन को संभालने के लिए दिल्ली से दुर्गेश पाठक को पार्टी संगठक और संजय सिंह को बतौर प्रभारी बनाकर भेज दिया गया था।
स्थानीय नेताओं ने इस फैसले को पंजाब में अपना प्रभाव घटने और हाईकमान का एकाधिकार स्थापित करने की कवायद से जोड़कर देखा था। प्रदेश संगठन से जुड़े कई पदाधिकारियों के मुंह से ये बात तक निकल गई थी कि पार्टी हाईकमान गलतफहमी में हैं कि वो दिल्ली में बैठकर पंजाब को पंजाबियों से ज्यादा समझने लगी है। इसके बाद मनीष सिसोदिया ने विधानसभा चुनाव से पहले ये इशारा दिया कि अगर पार्टी जीत गई तो एक गैरपंजाबी नेता मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभाल सकता है।
पंजाब को दिल्ली से नियंत्रित करने की कोशिश का एक बड़ा नुकसान ये भी हुआ कि पार्टी न तो पूरी तरह स्थानीय मुद्दों से जुड़ पाई और न जनता की भावनाओं को समझ सकी। विधानसभा चुनाव में घोषणापत्र पर पार्टी का निशान झाड़ू स्वर्ण मंदिर की तस्वीर पर लगा था। आप की इस चूक को सिखों की आस्था और आत्मसम्मान से जोड़ कर देखा गया। वहीं पार्टी पंजाब में सतलुज-यमुना लिंक कैनाल (एसवाईएल) जैसे राजनैतिक-सामाजिक मुद्दे को भी ठीक से नहीं भुना सकी।
आप के पास पंजाब में खुद को संभालने का एक और मौका साल 2016 में नवजोत सिंह सिद्धू की शक्ल में आया जब वो बीजेपी से अलग होकर अपने लिए नया विकल्प देख रहे थे। लेकिन ये पार्टी सिद्धू और उनके साथी और पूर्व हॉकी कप्तान परगट सिंह को अपने बैनर तले लाने में असफल रहे थे। जिसके बाद सिद्धू और परगट ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया था।
फिर साल 2018 की शुरुआत में आम आदमी पार्टी को घाटा हुआ जब अरविंद केजरीवाल ने शिरोमणि अकाली दल के नेता बिक्रम मजीठिया से माफी मांगी और कई नेताओं को नाराज कर दिया। केजरीवाल ने मजीठिया को पंजाब चुनाव के दौरान ड्रग तस्करों का सरगना कहा था, जिसपर मजीठिया द्वारा मानहानि का दावा ठोकने के बाद केजरीवाल ने अपने सभी आरोपों का बेबुनियाद कहा था।
केजरीवाल के इस फैसले से नाराज हो कर भगवंत सिंह मान ने पद से इस्तीफी दे दिया था। गौरतलब है कि उन्हें बाद में मना लिया गया था। लेकिन प्रदेश में आप के सहयोगी दल ‘लोक इंसाफ पार्टी’ (एलआईपी) ने उससे गठबंधन तोड़ने की घोषणा कर दी था। फिर उसके बाद नेता प्रतिपक्ष रहे सुखपाल खैरा ने इस साल जनवरी में पार्टी और विधानसभा की सदस्यता छोड़कर एक नई पार्टी ‘पंजाब एकता पार्टी’ की स्थापना कर दी, एचएस फुल्का भी अब आप के साथ नहीं रहे और वर्तमान में बीते 3 हफ्तों में पार्टी के 2 विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। वहीं अब तक आप के बीस में से 8 विधायक बागी हो गए हैं। इन्हीं कुछ कारणों की वजह से पार्टी की स्थिति आज खराब है।