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सियाचिन ग्लेशियर को लेकर अक्सर चर्चा होती रहती है। एक ओर भारत की सेना तो दूसरी ओर पाकिस्तान की सेना यहां हमेशा आंख गड़ाए बैठी हुई नजर आ जाती है।

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“कश्मीरी पंडितों के बारे में कुछ क्यों नहीं कहते” ये सवाल नहीं एक हथियार है

कश्मीर घाटी में अपने सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ों से पलायन करने से पहले उन्हें घोर अन्याय, हिंसा और अपमान को सहन करने पर मजबूर होना पड़ा था।
Blog Taranjeet 24 February 2020

कश्मीरी पंडितों के कश्मीर घाटी से पलायन को 30 साल हो गए हैं और इसमें कोई दोराय नहीं है कि ये भारत के इतिहास के सबसे काले लम्हों में से एक है। कश्मीर घाटी में अपने सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ों से पलायन करने से पहले उन्हें घोर अन्याय, हिंसा और अपमान को सहन करने पर मजबूर होना पड़ा था। उनका ये पलायन 1980 के दशक में कश्मीर में उग्रवाद के बढ़ते साम्प्रदायिकता की वजह से हुआ था। लेकिन इसका असर आज भी अपने पूरे जोर से सामने आता है। खास कर जब सोशल मीडिया पर कोई इंसान अपनी बात रखें और अगर वो हिंदूत्व के ऐजेंडा पर सवाल करे या फिर वो भाजपा की हिंदूवादी राजनीति पर सवाल करे। तो अचानक से एक सवाल सामने आ जाता है “कश्मीरी पंडितों के बारे में क्या कहना है”। ये सवाल उन लोगों की तरफ से उठता है जो नेताओं के सांप्रदायक मुद्दे से सहमत होते हैं और जब आपके तथ्यों और तर्क के सामने इनके पास जवाब नहीं होता है तो अचानक से सवाल आता है कि कश्मीरी पंडितों पर क्यों चुप हो। और आप तब सोच नहीं पाते हैं कि इनका क्या जवाब दें।

हर बार और खासतौर पर साम्प्रदयिक हिंसा की घटना के बाद कुछ लोग समूह, पीड़ित अल्पसंख्यकों के लिए न्याय की मांग उठाते रहे हैं। इनकी बातों को समझने की जगह पर तथाकथित हिंदू राष्ट्रवादियों की तरफ से कश्मीरी पंडितों के पलायन के सवाल को उठाना शुरू कर दिया जाता है। और तब आप पर सवालों के गोले दागे जाते हैं और आप एक बेहद ही निकम्मे भारतीय साबित कर दिए जाते हैं और पूछा जाता है कि बताइए तब आप कहां थे, जब घाटी से कश्मीरी पंडितों को भगाया गया? क्या हिंदूओं का दर्द नहीं दिखता? नकली सेक्यूलर से लेकर अर्बन लक्सली तक आपको कह दिया जाता है।

कश्मीरी पंडितों के साथ हुई नाइंसाफी का नाम लेकर अल्पसंख्यकों पर अत्याचारों करने का लाइसेंस मिल गया है। इस पूरी प्रक्रिया में हिंसा को एक आम रूप से पेश किया जा रहा है और कहने की कोशिश होती है कि धर्म के नाम पर सियासी बयानबाजी और हिंसा बिलकुल सही है। कश्मीरी पंडितों की पीड़ा के लिए देश के सारे अल्पसंख्यक जिम्मेदार नहीं हो सकते हैं और इनके अधिकारों की बात करने वाले लोग भी गलत नहीं है।

भाजपा की ही तो सरकार थी पलायन के वक्त

अगर शुरू से देखें तो जबसे पलायन की शुरुआत हुई, उस समय वहां राष्ट्रपति शासन की वजह से केंद्र में वी. पी. सिंह की सरकार सत्ता में थी। इस सरकार को भाजपा का बाहर से समर्थन हासिल था। जिसके बाद भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सत्ता में स्थापित हुआ जिसने 1998 से लेकर करीब 6 साल तक अटल बिहारी वाजपेयी के रूप में प्रधानमंत्री पदभार सम्भालने का काम किया था। फिर 2014 से पीएम के रूप में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता संभाल रखी है। इतने वक्त में भाजपा या एनडीए की तरफ से कोई कदम नहीं उठाया गया है। जिससे कश्मीरी पंडितों को वापिस अपने घर में जगह मिल सके।

कश्मीर का मामला बेहद चिंतित करने वाला है, और इसके लिए भारतीय मुसलमानों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है, जैसा कि इसे खुलकर प्रोजेक्ट किया जाता रहा है। मोदी सरकार ने जिस प्रकार से अनुच्छेद 370 को निरस्त किया, जम्मू-कश्मीर का बंटवारा कर दो केंद्र शासित प्रदेशों में तब्दील कर दिया और उसके बाद उम्मीद करें कि कश्मीरी पंडितों की घर वापसी होगी तो ये काफी मुश्किल लगता है।

कैसे हो सकती है कश्मीरी पंडितों की घर वापसी

आज जरूरत इस बात की है कि “कश्मीरी पंडितों के बारे में आपका क्या कहना है” के प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया जाए, और इसे हथौड़े के रूप में मुसलमानों और उनके अधिकारों के लिए सवाल करने वालों को मारने के औजार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाए। अगर कश्मीरी पंडितों का समाधान चाहिए तो उन्हें न्याय मिले। जरूरत इस बात की है कि दोषियों की पहचान के लिए एक न्यायिक आयोग का गठन हो और पंडित बिरादरी को आश्वस्त करने के कानूनी तरीके निकाले जाएं। अगर इसी प्रकार की जोर-जबरदस्ती वाला माहौल बना रहता है, जिसमें भारी संख्या में सेना तैनात कर रखी गई है तो क्या ऐसी स्थिति में वो घाटी वापस आना चाहेंगे? जरूरत इस बात की है कि पंडितों के सांस्कृतिक और धार्मिक स्थलों को पुनर्जीवित किया जाए और किसी भी प्रकार की सुलह की कोशिश के लिए कश्मीरियत को इसका आधार बनाया जा सके।

कश्मीर में शांति के लिए स्थानीय लोगों को इस वार्ता में शामिल किए जाने की जरूरत है, जो कि इस राज्य के हालात सुधारने के सबसे बड़े गारंटर होंगे। सांप्रदायिक सौहार्द का माहौल जो कश्मीर की पहचान रहा है उसे दोबारा जिंदा करना है तो इस क्षेत्र में बाहरी लोगों को लाकर बसाने और इसकी जनसांख्यिकीय संरचना को बदलकर रख देने से वो कत्तई नहीं होने जा रहा है। आज कश्मीर को लेकर एक ईमानदार आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है।

पंडितों के पलायन के मसले को हल करने का रास्ता सिर्फ और सिर्फ लोकतंत्र के जरिए ही पूरा हो सकता है, और साथ ही भारी संख्या में पलायन कर चुके उन मुसलमानों को भी साथ में लेने की जरूरत है, जो उग्रवाद और सशस्त्र बलों की भारी तैनाती के डर की वजह से घाटी छोड़ने पर मजबूर हुए थे। आज हमने एक ऐसे रास्ते को चुना है जिसमें लोकतांत्रिक मानदंडों का गला घोंटा जा रहा है, और स्वायत्तता का जो वायदा था, जो कि कश्मीर अधिग्रहण के समय उसका प्रमुख आधार रहा था, कि लगातार अनदेखी की जा रही है। क्या इस तौर-तरीकों को अपनाकर हम पंडितों का भला करने वाले हैं?

Taranjeet

Taranjeet

A writer, poet, artist, anchor and journalist.