
हाल ही में उत्तराखंड की आपदा से सब परेशान है, सैंकड़ों लोगों का लापता होना, कई लोगों की मौत इस प्राकृतिक आपदा ने सभी को चिंता में डाल दिया। कई बांध, सड़कें, घर, पुल भी खत्म हो गए। ये प्राकृतिक आपदा जरूर थी, लेकिन इसमें हाथ इंसान का भी पूरा था। इसके साथ ही कुछ सवाल भी जरूर बनते हैं कि आखिर इस आपदा को रोकने या इसके असर को कम करने के लिए पहले से क्या तैयारी थी। अभी तक तो ये भी साफ नहीं है कि आखिर इस आपदा की शुरुआत कैसे, कब और किस वजह से हुई?
उत्तराखंड की सरकारी एजेंसियों का कहना है कि ग्लेशियर टूटने से ये आपदा हुई है। 520 मेगावॉट के निर्माणाधीन और अब नष्ट हो गए तपोवन विष्णुगढ़ हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के डेवलपर एनटीपीसी के हिसाब से ये हिमस्खलन है। तो वहीं कोई कह रहा है कि ग्लेशियर के वॉटर पॉकेट्स टूट गए थे, कोई इसे बादल फटने की घटना कह रहा है। लेकिन अब तक पुख्ता सूचना नहीं मिली है कि आखिर हुआ क्या था।
किसी भी आपदा से तैयार रहने के लिए सबसे अहम कदम होता है कि उसकी सही जानकारी मिले, वहां की निगरानी रखी जा सके। लेकिन हर बार की तरह इस बार भी हम इसी में मात खा गए। अगर आपके पास जानकारी हो तो भी आपको पुख्ता आपदा प्रबंधन योजना बनानी होती है और ऐसी व्यवस्था भी करनी होती है जिससे ये योजना लागू की जा सके। लेकिन हर बार की तरह इस बार भी हमें जानकारी नहीं थी और हम संवेदनशील क्षेत्रों की निगरानी सही तरीके से नहीं कर सके।
जनता और सरकारों को इसकी जानकारी तब मिली जब रैणी गांव ऋषिगंगा नदी के सैलाब की चपेट में आ गया। 70 के दशक में चिपको आंदोलन इसी गांव से शुरू हुआ था और गांव के कई घर और लोग इस तबाही के शिकार हुए, क्योंकि कई लोग नदी किनारे अपनी जानवर चरा रहे थे। इस सैलाब की सबसे बड़ी रुकावट थी, नदी पर बना बैराज जोकि कुछ ही क्षणों में ढह गया और उसके बाद अगला था 13.2 मेगावॉट का ऋषिगंगा हाइड्रोपावर प्रॉजेक्ट जोकि देखते ही देखते खत्म हो गया। फिर ऋषिगंगा नदी, धौलीगंगा नदी से जा मिली।
इसके बाद तपोवन के विष्णुगढ़ हाइड्रोपावर प्रॉजेक्ट के निर्माणाधीन बांध की बारी आई। एनटीपीसी के इस प्रॉजेक्ट को एशियन डेवलपमेंट बैंक ने फंड किया है। इस सैलाब ने इसे ध्वस्त करने में बिलकुल देरी नहीं की। मलबा और पानी इसकी सुरंगों में घुस गया जहां काम चालू था। यहां बड़ी संख्या में मजदूर फंस गए। अब उफनती धौलीगंगा नदी विष्णुप्रयाग स्थित अलकनंदा नदी से जा मिली और पानी की हाइट 2013 की बाढ़ के स्तर से ज्यादा हो गया।
यहां ये समझना काफी जरूरी है कि पूरी तरह से प्राकृतिक आपदा नहीं है। हर बार बांध को तोड़ते हुए जब नदी में सैलाब आगे बढ़ा तो उसका रूप और भयानक होता गया और उसमें मलबा भी बढ़ता गया। इस तरह इंसानी हरकतों ने आपदा के असर को और खौफनाक बनाया। सबसे ज्यादा नुकसान और मौतें ऋषिगंगा के साथ रैणी गांव, धौलीगंगा से अलकनंदा, और कुछ किलोमीटर नीचे जोशीमठ में हुईं। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने भी इस क्षेत्र में निर्माणाधीन रेलवे और सड़कों के बारे में बताया जहां मजदूर फंसे हो सकते हैं या बाढ़ में बह सकते हैं।
उत्तराखंड में पहले भी ऐसे हादसे हो चुके हैं, बेशक, इस आपदा का कारण जलवायु का बदलता मिजाज भी है। इस तूफान की शुरुआत से इसका संकेत मिलता है। लेकिन इसके नुकसान की मात्रा को देखकर यही पता चलता है कि इस क्षेत्र में इंसानी दखल भी इसकी बहुत बड़ी वजह है। बड़े हाइड्रोपावर प्रॉजेक्ट, बड़ी सड़कें, रेलवे लाइन और नदी के किनारों और तल पर निर्माण, और कुछ नहीं बड़ी आपदाओं को न्यौता देना ही है।
क्षेत्र में आपदा की आशंका पर कोई विश्वसनीय आकलन नहीं किया जाता और न ही इसका अध्ययन किया जाता है कि इंसानी दखल की वजह से आपदा की ज्यादा जोखिम कैसे होता है। इसके बजाय ये प्रोजेक्ट्स हर तरह से नियमों का ताक पर रखकर चलाए जाते हैं। जैसे डायनामाइट का इस्तेमाल और नदी में लाखों क्यूबिक मीटर मलबा डालना। इस इलाके में बड़े हाइड्रोपावर प्रॉजेक्ट्स कभी भी व्यावहारिक नहीं थे और न ही लोग इनके पक्ष में रहे हैं।