
बिहार की राजनीति की बात ही कुछ और रही है। यहां एक से बढ़कर एक राजनेता हुए हैं। कुछ ऐसे राजनेता भी हुए हैं, जिनके बारे में सभी लोगों को जानना चाहिए। राजनेता जनता के बीच से ही निकलते हैं और वे जनता के लिए ही काम करते हैं। आमतौर पर यही किसी राजनेता की परिभाषा होती है। हालांकि, नेताओं के बारे में सभी लोग अपने मन में अलग-अलग प्रकार की छवि बना लेते हैं। राजनेताओं से जनता को हमेशा उम्मीदें बड़ी होती हैं।
इसके अलावा भी एक और सत्ता की राजनीति होती है। इसमें जनता एक तरीके से राजनेताओं का मोहरा बन जाती है। वोट देने का अधिकार जरूर मतदाताओं के पास होता है, मगर वह अपने इस अधिकार का प्रयोग ठीक तरीके से नहीं कर पाती है। हालांकि, यहां जिस राजनेता की हम बात कर रहे हैं, उनकी छवि इन सभी प्रकार के राजनेताओं से ऊपर रही है। ये कर्पूरी ठाकुर के नाम से जाने गए हैं। आज भी इनका नाम पूरे सम्मान से लिया जाता है।
बिहार के राजनेताओं की बात होती है तो इन सब में जननायक कर्पूरी ठाकुर का नाम ही सबसे ऊपर आता है। वे अस्सी के दशक के ऐसे राजनेताओं में शामिल रहे हैं, जिन्हें दबे-कुचले लोगों की आवाज माना जाता था। कर्पूरी ठाकुर की राजनीति करने का अंदाज ही एकदम निराला था। विधायक बनने का पहला मौका उन्हें 1952 में मिला था। इस दौरान वे एक प्रतिनिधिमंडल में भी चुन लिए गए थे जो कि ऑस्ट्रिया के दौरे पर जा रहा था।
अब जब वे विदेश जा रहे थे तो ठीक-ठाक कपड़े उनके पास होने जरूरी थे, ताकि वे अच्छे दिखें। कोट उनके पास था नहीं। ऐसे में अपने एक दोस्त से उन्होंने कोट ले लिया, लेकिन यह भी फटा हुआ निकला। फिर भी वे इसी फटे हुए कोट को पहनकर ऑस्ट्रिया के लिए रवाना हो गए। वहां पहुंचे तो यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो की नजर कर्पूरी ठाकुर के फटे हुए कोट पर पड़ गई। यह देखकर उन्हें हैरानी बहुत हुई, लेकिन उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को एक कोट वहां गिफ्ट कर दिया। किसी राजनेता के बारे में इस तरह की बातें बहुत कम ही सुनने को मिलती हैं, पर कर्पूरी ठाकुर के साथ वास्तव में ऐसा हुआ था। इस पर यकीन कर पाना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं है।
कर्पूरी ठाकुर के बारे में इस तरह के कई किस्से सुनने को मिल जाते हैं। वर्ष 1974 में उनके छोटे बेटे का मेडिकल की पढ़ाई के लिए चयन हो गया था, लेकिन उसी समय वह बीमार पड़ गया। हालत खराब होने लगी। उसे इलाज के लिए राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया गया। जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को इस बात की जानकारी हुई तो उन्होंने तुरंत एक सांसद को उनके पास भेजा। उनके बेटे को इलाज के लिए एम्स में भर्ती कराया गया। उसके दिल का ऑपरेशन होना था। फिर कर्पूरी ठाकुर से इंदिरा गांधी ने कहलवा दिया कि सरकारी खर्चे पर बेटे को इलाज के लिए वे अमेरिका भेजने के लिए तैयार हैं, लेकिन कर्पूरी ठाकुर को सरकारी खर्चे पर अपने बेटे का इलाज कराना नागवार गुजरा। वे बिल्कुल भी इसके लिए तैयार नहीं हुए। बताया जाता है कि जयप्रकाश नारायण ने किसी तरीके से पैसों की व्यवस्था की और इलाज के लिए उनके बेटे को न्यूजीलैंड भेजा।
इसी तरह से एक बार प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह जब उनके घर गए तो उनके घर में प्रवेश करते वक्त उनका सिर दरवाजे से टकरा गया। इस पर उन्होंने जब कर्पूरी ठाकुर को इसे थोड़ा ऊंचा करवाने की सलाह दी तो कर्पूरी ठाकुर ने साफ कह दिया कि जब तक बिहार में सभी लोगों का घर नहीं बन जाता, तब तक इसे ऊंचा करवाने से भला क्या फायदा।
पिछड़े वर्गों के लिए कर्पूरी ठाकुर ने विशेष तौर पर काम किया। 26 फीसदी आरक्षण की घोषणा उन्होंने कर दी थी, जिसके लिए उनकी बहुत निंदा भी हुई थी। यहां तक कि 1978 में तो उनकी सरकार भी चली गई थी। लालू यादव कर्पूरी ठाकुर को ही अपना राजनीतिक गुरु बताते रहे हैं। बचपन में भी जातिगत समस्याओं का उन्होंने खूब सामना किया था। मैट्रिक पास होने पर जब उनके पिता ने एक बड़े आदमी से उन्हें मिलवा कर यह बताया था कि उन्होंने फर्स्ट डिवीजन से मैट्रिक पास किया है तो इसके बाद उस आदमी ने अपने पैर को टेबल पर उनके सामने रखते हुए उनसे पैर दबाने के लिए कह दिया था।
दो बार राज्य का मुख्यमंत्री रहने के दौरान उन्होंने जातिगत राजनीति से ऊपर उठकर भी कई काम किए। भले ही कुछ लोग उन्हें किसी जाति विशेष का नेता आज करार देते हैं, लेकिन इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि कर्पूरी ठाकुर सभी को साथ लेकर चले थे।