
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां जनता सरकार को चुनती है। सरकार बनती है राजनीति से। राजनीति होती है राजनेताओं से। राजनेता एक से बढ़कर एक हुए हैं इस देश में। कई राजनेताओं ने तो अपनी एक अलग छाप ही छोड़ दी है। एक ऐसे ही राजनेता हुए थे इस देश में।अंग्रेजों से भी इन्होंने लोहा लिया था। पुर्तगालियों से भी दो-दो हाथ किए थे। पुणे के रहने वाले थे। इन्होंने फर्ग्युसन कॉलेज में पढ़ाई भी की। राजनीति में कूदे। मुंबई में दो बार चुनाव लड़ा। चुनाव हार गए। फिर बिहार चले आए। बिहार में अपनी किस्मत आजमाई। चार बार सांसद चुने गए। नाम था इनका मधु लिमये।
बोलते थे तो हर किसी की बोलती बंद हो जाती थी। सबूतों के साथ बोलते थे। दस्तावेज सामने रखकर बोलते थे। सत्ता पक्ष उनकड बोलने से डरने लगता था। कितने केंद्रीय मंत्रियों की तो इन्होंने कुर्सी ले ली थी। इन्हें संसदीय परंपराओं के बारे में बहुत अच्छी तरह से मालूम था। मधु लिमये भारतीय राजनीति का एक अमिट नाम रहे हैं।
वे पहले प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में थे। बाद में आचार्य नरेंद्र यादव नहीं रहे तो पार्टी बिखर गई। कई नेता कांग्रेस के साथ चले गए, तो जॉर्ज फर्नांडिस, कर्पूरी ठाकुर और मधु लिमये जैसे नेता राममनोहर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी के साथ हो गए। मुंगेर से इसी पार्टी के टिकट पर मधु लिमये ने 1964 में चुनाव जीता था। इसके बाद 1967 में मुंगेर से वे फिर जीत गए।
कांग्रेस का 1969 में विभाजन हो गया था। उस वक्त बहुत से लोगों ने पार्टी छोड़ दी थी। एक-एक मंत्रियों के पास कई विभाग तब हुआ करते थे। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री भी थीं और वित्त मंत्रालय का काम भी देख रही थीं। बजट पास होने में काफी समय लगने वाला था। ऐसे में लेखानुदान पास करवाना था। 31 मार्च से पहले यह हो जाना था। सभी लोग भूल गए। सभी सांसद घर चले गए।
मधु लिमये को याद आ गया। तुरंत वे तब के लोकसभा स्पीकर गुरदयाल सिंह के यहां पहुंच गए। मधु लिमये के प्रयासों से रात 12:00 बजे संसद की बैठक हुई। लेखानुदान पारित हुआ। इस तरह से एक गंभीर संविधानिक संकट से देश बच गया। एक बड़ा वित्तीय संकट मधु लिमये के कारण टल गया।
लोहिया नहीं रहे तो संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय दल के नेता मधु लिमये चुन लिए गए। पार्टी में अंदरूनी खींचतान बढ़ने लगी। कहा जाने लगा कि अगड़े वर्ग के लोगों ने महत्वपूर्ण पदों को हथिया लिया है। मधु लिमये भी ब्राह्मण समुदाय से आते थे। उन्हें लेकर भी बातें होने लगी। उन्होंने बिना देरी किए पद को छोड़ दिया। बहुत से नेताओं ने उन्हें मनाया, मगर वे नहीं माने। रामसेवक यादव संसपा संसदीय दल के नेता चुने गए। बाराबंकी से वे सांसद थे।
वर्ष 1971 में दरभंगा के सांसद विनोदानंद झा का निधन हो गया था। उनकी सीट पर उपचुनाव हुआ था। इंदिरा गांधी ने ललित नारायण मिश्र को उम्मीदवार बनाया था। संसपा से रामसेवक यादव चुनाव मैदान में थे। उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था।
गरीबी हटाओ का नारा इंदिरा गांधी ने 1971 में दिया था। मुंगेर से डीपी यादव चुनाव मैदान में थे। डीपी यादव ने मधु लिमये को हरा दिया था। हालांकि, मधु लिमये को एक और मौका मिला। बांका के कांग्रेसी सांसद चंडिका प्रसाद का निधन हो गया। उपचुनाव मधु लिमये लड़ रहे थे। हालांकि, उनके मुकाबले राजनारायण निर्दलीय मैदान में उतर गए थे। कांग्रेस ने दरोगा प्रसाद राय को चुनाव मैदान में उतार दिया था। मधु लिमये को बार-बार वे मधु लिमये बम्बइया कहकर बुला रहे थे।
जॉर्ज फर्नांडिस आ गए चुनाव प्रचार करने। दारोगा प्रसाद राय को लेकर उन्होंने बहुत बड़ी बात कह दी। उन्होंने कहा कि त्रेता युग में या चंपारण सत्याग्रह के समय दरोगा प्रसाद राय नहीं थे तो यह अच्छा ही हुआ। नहीं तो भगवान राम की शादी वे नेपाल में होने ही नहीं देते। महात्मा गांधी को भी वे चंपारण से बाहरी कहकर भगा देते। जॉर्ज फर्नांडिस की बात का बड़ा प्रभाव पड़ा। बांका से मधु लिमये को बड़ी जीत मिली थी।
वर्ष 1977 में इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी को चुनाव में बड़ी हार मिली थी। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। मंत्री बनने को लेकर रस्साकशी चल रही थी। अटल बिहारी वाजपेई और जॉर्ज फर्नांडिस मंत्री बनने के लिए तैयार हो गए। मधु लिमये ने मना कर दिया। उन्होंने साफ कह दिया कि मेरी जगह पुरुषोत्तम कौशिक को आप मंत्री बना दें।
मधु लिमये आरएसएस के घोर विरोधी थे। उनका कहना था कि RSS कभी भी कोई नई चीज नहीं सोच सकता। बचपन से ही लोगों के विचारों को खास दिशा में मोड़ने का काम करता है। जनता पार्टी की सदस्यता को लेकर उन्होंने एक बड़ी बात कह दी थी। जनता पार्टी का कोई सदस्य आरएसएस का सदस्य नहीं हो सकता था। यह चीज पार्टी पर भारी पड़ी।
मोरारजी देसाई की सरकार चली गई। विपक्षी एकता के नाम पर बनी पार्टी बुरी तरह से बिखर गई। पूर्व सांसद वाली पेंशन तक मधु लिमये ने नहीं ली। अखबारों में जो कॉलम लिखकर मिला उसी से गुजारा करते रहे। वाकई मधु लिमये जैसा नेता होना बहुत मुश्किल है।