एक वक्त था जब भारत की सांस्कृतिक विरासत के सामने दुनिया की शायद ही कोई सांस्कृतिक विरासत ठहर सकती थी। मगर इस देश को बाहरी आक्रमणकारियों की नजर ऐसी लगी कि धीरे-धीरे इसकी सांस्कृतिक समृद्धि उनकी लूट-खसोट, उनके द्वारा फैलाये गये धार्मिक उन्माद और नफरत आदि की भेंट चढ़ती चली गई। नतीजा ये हुआ कि इस देश ने अपनी सांस्कृतिक विरासत की बहुत सी ऐसी मूल्यवान चीजों को खो दिया, जिनकी वजह से उसका सिर दुनिया के सामने हमेशा ऊंचा रहता था। इन्हीं में से एक था नालंदा विश्वविद्यालय, जिसकी विशालता और जिसके विशाल पुस्तकालय के सामने हर कोई नतमस्तक था।
गुप्त वंश के शासक सम्राट कुमारगुप्त को 5वीं शताब्दी में इसकी स्थापना का श्रेय जाता है। वर्तमान में बिहार की राजधानी पटना से यह 88.5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हीनयान बौद्ध धर्म के साथ अन्य धर्मों की भी शिक्षा यहां ग्रहण करने के लिए चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, इंडोनेशिया, तिब्बत, ईरान, ग्रीस, फारस और तुर्की आदि देशों से छात्र आते थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय का उल्लेख मिल जाता है।
भारत की शान नालंदा विश्वविद्यालय का विध्वंस अभिलेखों के मुताबिक आक्रमणकारियों ने तीन बार किया था, जिनमें से दो बार फिर से इसका निर्माण किया गया था। सबसे पहले तो ह्यून ने स्कंदगुप्त (455-467 ईस्वी) के शासनकाल में इसका विनाश किया था, जिसका फिर से निर्माण स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारियों ने किया था। फिर गौदास ने सातवीं शताब्दी के आरंभ में जब इसे रौंदा तो इसकी मरम्मत बौद्ध शासक हर्षवर्धन (606-648 ईस्वी) ने करवाई थी। अंतिम और तीसरी बार सबसे बुरी तरीके से इसका विध्वंस 1193 में किया तुर्क सेनापति इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी और उसकी सेना ने, जिन्होंने इसके पुस्तकालय तक को जला डाला और ऐसा कहा जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय का यह पुस्तकालय तीन महीने तक जलता रहा था। इसकी वजह से सबसे बड़ा झटका उस वक्त बौद्ध धर्म को लगा था, क्योंकि वह उभर रहा था और इन पुस्तकों व धर्मग्रंथों के जल जाने की वजह से वह सैकड़ों वर्ष पीछे चला गया था।
दरसअल एक बार बीमार होकर मरणासन्न स्थिति में पहुंचने पर बख्तियार खिलजी को किसी ने नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र से इलाज करवाने की सलाह दी, जो खिलजी को मंजूर नहीं था, क्योंकि उसका मानना था कि भारतीय वैद्य उसके हकीमों से न तो अधिक ज्ञान रख सकते हैं और न ही अधिक काबिल हो सकते हैं। फिर भी अंत में अपनी जान बचाने के लिए उसने आचार्य राहुल श्रीभद्र को बुलवा तो लिया मगर बिना कोई दवा खिलाए उसे ठीक करने की शर्त उनके सामने रख दी। कहा जाता है कि आचार्य श्रीभद्र ने खिलजी को कुरान के कुष्ठ पृष्ठ पढ़ने को कह दिया और इससे कुछ दिनों बाद खिलजी एकदम ठीक हो गया, क्योंकि श्रीभद्र ने पन्नों पर एक औषधी का लेप चढ़ा दिया था और पन्ने पलटने के लिए थूक का सहारा लेने से यह औषधी खिलजी के शरीर में प्रवेश करती चली गई। इस बात से परेशान होकर कि भारतीय विद्वान या शिक्षक उसके हकीमों से भी अधिक ज्ञानी हो सकते हैं, खिलजी ने भारत के ज्ञान, यहां के बौद्ध धर्म एवं आयुर्वेद को समूल नष्ट करने के लिए नालंदा विश्वविद्यालय के साथ इसके पुस्तकालय को भी जला दिया, जिसमें बताया जाता है कि करीब 90 लाख पांडुलिपियां जल गईं। यहां तक कि खिलजी ने हजारों धार्मिक विद्वानों एवं भिक्षुओं की हत्या भी करवा दी।
संस्कृत के तीन शब्द ‘ना आलम दा’ नालंदा बना है, जिसका तात्पर्य है कि ज्ञान रूपी भेंट पर कोई बंदिश नहीं हो सकती। तक्षशिला विश्वविद्यालय के बाद दुनिया को दूसरा सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय को ही माना जाता है। ह्वेनसांग और इत्सिंग ने तो इसे दुनिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय भी बता दिया था। मेधा के आधार पर चयन होने के बाद इस विश्वविद्यालय में शिक्षा से लेकर रहना और खाना भी पूरी तरह से निःशुल्क था। बताया जाता है कि यहां लगभग 10 हजार छात्र अध्ययन करते थे, जिनके मार्गदर्शन के लिए यहां करीब 2000 अध्यापक भी थे। अभिलेखों के मुताबिक गौतम बुद्ध भी यहां कई बार यहां आकर रुके थे।
नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय की भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह 9 मंजिल का था और रत्नरंजक, रत्नोदधि एवं रत्नसागर नामक तीन भाग में भी बंटा हुआ था। इसी के अंदर ‘धर्म गूंज’ नामक भी एक पुस्तकालय था। वसुबन्धु, हर्षवर्धन, धर्मकीर्ति, धर्मपाल, नागार्जुन, आर्यवेद जैसे कई विद्वान यहीं पढ़े थे। विश्वविद्यालय में लोकतांत्रिक प्रणाली का पालन करते हुए सर्वसम्मति से लिये जाने वाले फैसले में छात्रों की भी राय ली जाती थी। आज को नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष 1.5 लाख वर्ग फीट में फैले हैं, कहा जाता है कि ये मूल नालंदा विश्वविद्यालय के केवल 10 फीसदी ही हैं।
जरा सोचिए, यदि आज भी नालंदा विश्वविद्यालय अपने मूल रूप में अस्तित्व में रहता और साथ में उसका पुस्तकालय भी, जिसे खिलजी ने जला डाला तो शिक्षा के क्षेत्र में भारत आज कितनी ऊंचाईयों को छू रहा होता? जानकारी अच्छी लगी हो तो अपने दोस्तों के साथ भी इसे शेयर करें, क्योंकि अपने देश पर नाज करने का हक सबको है।