बिहार में विधानसभा चुनाव शुरू हो गया है। पहले चरण का मतदान संपन्न हो चुका है। इसी तरह से वर्ष 1969 में भी विधानसभा चुनाव हुए थे। इस चुनाव में कांग्रेस को कम सीटें मिली थीं। विपक्षी पार्टियों को ज्यादा सीटें मिल गई थीं।
उस वक्त विधानसभा में 318 सदस्य हुआ करते थे। इनमें से केवल 118 सदस्य ही कांग्रेस के जीत पाए थे। कांग्रेस की इस वक्त तूती बोलती थी। इसके बावजूद कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत खराब रहा था। कांग्रेस के लिए यह बहुत बड़ा झटका था।
संयुक्त नेशनलिस्ट पार्टी उस दौरान दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई थी। रामानंद तिवारी उस समय के एक बड़े नेता हुआ करते थे। उन्हें भी शाहपुर विधानसभा सीट से जीत मिली थी। इस तरह से वे विधानसभा में पहुंच गए थे।
शोषित दल के साथ संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का उस वक्त बड़ा टकराव हुआ था। दोनों ही समाजवादी विचारधारा की पार्टियां थीं। फिर भी टकराव से समाजवादी धारा को बड़ी ठेस पहुंची थी।
इस चुनाव में केवल 6 सीटें ही शोषित दल जीत पाने में कामयाब रहा था। फिर संयुक्त विधायक दल बनाया गया। इसमें संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के साथ संगठन कांग्रेस, स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ भी शामिल हुए। रामानंद तिवारी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के विधायक दल के नेता थे। उन्हें संयुक्त विधायक दल के नेता के रूप में भी चुन लिया गया था।
इस तरह से सरकार बनाने का दावा भी रामानंद तिवारी की तरफ से पेश कर दिया गया। दावा तो उन्होंने पेश जरूर किया, लेकिन उनकी अगुवाई में सरकार का गठन नहीं हो सका। संयुक्त विधायक दल के नेता तो वे चुन लिए गए थे, लेकिन एक अड़चन आ गई थी। जनसंघ साथ मिलकर सरकार बनाने के पक्ष में एक तबका नहीं था। उसने इसे लेकर विरोध जताना शुरू कर दिया।
बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम नामक एक किताब है। प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत ने इसे लिखा है। इस किताब में इस वाकये का जिक्र है। इसमें बताया गया है कि उस वक्त संयुक्त विधायक दल की सरकार बननी थी। लेकिन उस वक्त एक समस्या पैदा हो गई थी।
दरअसल, जनसंघ और संगठन कांग्रेस के साथ मिलकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सरकार बनाने का फैसला फंस गया था। पार्टी के अंदर इसे लेकर मतभेद पैदा हो गए थे। एक पक्ष पूरी तरीके से इसके खिलाफ खड़ा हो गया था। सुरेंद्र मोहन और एसएम जोशी उस वक्त के कद्दावर नेता हुआ करते थे। उन्हें पटना आने की जरूरत पड़ गई थी।
इस मुद्दे पर बड़ी माथापच्ची हो रही थी। एक पक्ष बिल्कुल भी झुकने के लिए तैयार नहीं था। जनसंघ और संगठन कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाना उसे कतई मंजूर नहीं था। आखिरकार, इसे लेकर एक फैसला कर लिया गया। निर्णय यह हुआ कि जनसंघ और संगठन कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार नहीं बनाई जाएगी। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी इन दोनों दलों के साथ नहीं जाएगी।
किताब और भी बहुत कुछ बताती है। इसके मुताबिक कर्पूरी ठाकुर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में दूसरे सबसे बड़े नेता हुआ करते थे। कर्पूरी ठाकुर को भी यह बिल्कुल मंजूर नहीं था। इस मुद्दे पर पार्टी के भीतर मतभेद गहराता जा रहा था। इंद्र कुमार नामक एक विधान परिषद सदस्य हुआ करते थे। कर्पूरी ठाकुर के वे बड़े समर्थक थे। उन्होंने एक बड़ा बयान दे दिया।
उन्होंने संगठन कांग्रेस और जनसंघ के साथ मिलकर सरकार बनाने को लेकर चेतावनी दे दी। उन्होंने कहा कि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को ऐसा बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो पार्टी में दरार आना निश्चित है।
वाद-विवाद लंबे समय तक चलता रहा। समय आगे बढ़ता गया। आखिरकार 16 फरवरी, 1970 को नई सरकार का गठन हुआ। इंदिरा कांग्रेस की यह सरकार बनी थी। दरोगा प्रसाद राय मुख्यमंत्री बने थे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ शोषित दल, प्रजातांत्रिक सोशलिस्ट पार्टी, एलसीडी और झारखंड का समर्थन करने वाले दल साथ में थे। ये सरकार को अपना समर्थन दे रहे थे।
यह वास्तव में एक ऐतिहासिक क्षण था। पहली बार कांग्रेस को सीपीआई से भी समर्थन मिला था। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में दरार तो आ ही गई थी। इसमें भी विधायकों के दो गुट बन गए थे। एक गुट अगड़ी जातियों का बन गया था, जबकि दूसरा गुट पिछड़ी जातियों का था। इस तरह से रामानंद तिवारी तब मुख्यमंत्री नहीं बन पाए थे। दरोगा राय को सीएम बनने का अवसर मिल गया था।