
सरदार वल्लभभाई पटेल और पंडित जवाहर लाल नेहरु को लेकर हमेशा बहस चलती रहती है। कहा जाता है कि पटेल को काफी अन्याय झेलना पड़ा था। काम तो उनके अभूतपूर्व रहे, लेकिन उन्हें इसका प्रतिफल नहीं मिला। राजनीतिक महत्वाकांक्षा उनमें ना के बराबर थी, बहुत से लोग ऐसा मानते हैं।वर्ष 1946 भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा था।
खासकर कांग्रेस के लिए। चुनाव हुए थे। कांग्रेस 15 राज्यों में विजयी रही थी। कांग्रेस के अध्यक्ष पद का महत्व बढ़ गया था। पटेल को इसके लिए 12 राज्यों की तरफ से नामांकन मिला था। बचे तीन राज्यों की ओर से कोई भी नाम नहीं दिया गया था। नेहरू का नाम तो आया ही नहीं था।
गांधीजी बड़े चिंतित हो गए थे। कृपलानी को गांधीजी ने फिर एक जिम्मेवारी दी। उनसे कहा कि नेहरू का नाम सुझाने के लिए कार्यसमिति के कुछ सदस्यों को वे मना लें। फिर भी कोई सामने आया नहीं। अंत में गांधीजी के पास कोई और विकल्प नहीं बचा। सीधे पटेल से उन्होंने बात की। उन्हें कहा कि वे अपना नाम वापस ले लें। पटेल ने भी तुरंत ऐसा ही किया। अब नेहरू का प्रधानमंत्री बनना पक्का हो गया था।
हिंदू-मुस्लिम दंगा 1946 में बंगाल में भड़का था। सरदार पटेल गृहमंत्री थे। पूरे देश में दंगे की आग फैल गई थी। नेहरु की बंगाल नीति के पटेल कड़े आलोचक के तौर पर सामने आए थे। कांग्रेस में दो फाड़ दिखने लगा था। पटेल के साथ हिंदुत्व वाले हो गए थे। नेहरु के साथ मुस्लिम परस्त और वामपंथी लोग थे। नेहरु को लगा कि पटेल खतरा बन रहे हैं। पटेल की ताकत को कम करना उन्होंने शुरू कर दिया। इस दौरान पटेल और नेहरू के बीच दूरियां बढ़ी थीं।
छोटी-बड़ी 564 रियासतों को सरदार पटेल ने भारत में मिला लिया था। जूनागढ़ और हैदराबाद अड़े हुए थे। राष्ट्रसंघ तक वे पहुंच गए थे। फिर भी जूनागढ़ को पटेल ने भारत में शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया।नेहरु यूरोप दौरे पर गए हुए थे। सरदार पटेल प्रभारी प्रधानमंत्री बने थे। इस दौरान उन्होंने एक बड़ा निर्णय लिया। हैदराबाद में सीधी कार्रवाई उन्होंने कर दी। पांच दिनों में हैदराबाद भारत में शामिल हो गया। जब तक नेहरु भारत आए, हैदराबाद भारत का हिस्सा बन चुका था। नेहरु को इससे बड़ा गुस्सा आया था। किसी सख्त कार्रवाई के पक्ष में नेहरु नहीं थे।
कश्मीर मुद्दे पर भी पटेल और नेहरु के बीच सबकुछ कुछ ठीक नहीं था। कश्मीर पर पाकिस्तान का हमला हो गया था। भारत से महाराजा हरि सिंह मदद चाह रहे थे। नेहरु कह रहे थे कि पहले विलय पत्र पर साइन करना पड़ेगा। महाराजा हरि सिंह से सरदार पटेल के ताल्लुकात अच्छे थे। उन्होंने आखिरकार मेनन को रातों-रात श्रीनगर भेज दिया। विलय पत्र पर उन्होंने हस्ताक्षर करवा लिए। नेहरु अब तक इसके लिए तैयार नहीं थे।
सरदार वल्लभभाई पटेल ने 23 अक्टूबर, 1947 को त्यागपत्र दे दिया था। वजह नेहरु की कश्मीर नीति थी। कश्मीर का मामला गृह मंत्रालय के कार्यक्षेत्र में हुआ करता था। गृह मंत्रालय पटेल के पास था। अब नेहरु ने क्या किया कि उन्होंने इसे अपने पास ले लिया। गोपालस्वामी अय्यंगर को उन्होंने इसे एक विभाग के रूप में सौंप दिया। कैबिनेट रैंक का मंत्री उन्हें बना दिया।
सरदार वल्लभभाई पटेल के लिए यह एक बड़ी चोट थी। उन्हें बड़ा अपमानजनक महसूस हो रहा था। पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ। पटेल इसके खिलाफ थे। उनका कहना था कि पाकिस्तान ने हम पर हमला किया। कबाइलियों को उसने आगे रखा। उसने दोस्ती निभाई ही नहीं। फिर हमारे वादा निभाने का क्या मतलब?गांधी इस मुद्दे पर अनशन करने लगे। पाकिस्तान को ये रुपए दे दिए गए। पटेल कुछ भी नहीं कर सके। मन मसोसकर रह गए।
पटेल और नेहरु का रिश्ता तीखा होता जा रहा था। गांधी इनके बीच समझौता करवा देते थे। फिर गांधी जी की हत्या हो गई। बहुत कुछ बदल गया। नेहरु विशेष तौर पर आहत हुए।सरदार वल्लभभाई पटेल को उन्होंने 29 मार्च, 1950 को एक चिट्ठी लिखी थी। इसमें उन्होंने लिखा था कि वे बड़े निराश हैं। उन्हें लगता है कि जिंदगीभर उन्होंने कुछ किया ही नहीं। भारत की स्थिति उन्हें निराश कर रही है।
पटेल का जवाब देखने लायक है। उन्होंने लिखा कि मुझे नहीं पता था कि आप इतने परेशान हैं। मालूम होता तो तुरंत मैं आपके पास होता। समस्याओं को हम मिलकर हल कर लेते। कुछ ऐसा अब करना पड़ेगा। जनता में हम दोनों के बारे में और भ्रम नहीं फैलना चाहिए।चीजें इसी तरह से चलती रहीं। पटेल ने 15 दिसंबर, 1950 को दुनिया को अलविदा कह दिया। सवाल हमेशा के लिए रह गया। क्या पटेल को वह मिला, जिसके वे हकदार थे?