
किसने सोचा था, एक दिन ऐसा भी आयेगा। हर ओर डर का साया होगा। हर ओर खामोशी होगी। हर कदम घर से निकालने के पहले सौ बार सोचना होगा। हर दिल में बस संक्रमण और मौत का खौफ होगा । कोरोना संकट का ये काल है और पूरी दुनिया इसकी चपेट में है। मगर ऐसा नहीं कि पहली बार दुनिया भिड़ी है इतनी बड़ी महामारी से। इससे पहले भी एक महामारी फैली थी जिसका नाम था चेचक (Pox)। इतिहास में जो सबसे जानलेवा बीमारियां हुई हैं, उनमें से एक है चेचक। टीका वैसे अब बन चुका है। उन्मूलन भी हो चुका है बीमारी का। फिर भी जो घाव दिये हैं इस चेचक ने दुनिया को, उसे भुलाना तो बहुत ही मुश्किल है।
पूछा जाए कि COVID-19 कैसे होता है, तो इसका जवाब होगा कोरोना वायरस (Corona virus) के संक्रमण से। वैसे ही चेचक के लिए भी एक वायरस का संक्रमण जिम्मेवार था। नाम था वेरिओला मेजर वायरस (Variola Major Virus)। कोरोना का संक्रमण जिसमें होता है, उसमें लक्षण दिखने में सात से आठ दिन लग जाते हैं। कई बार दो हफ्ते भी। वेरिओला मेजर वायरस के साथ भी कुछ ऐसा ही था। शरीर में आ गया तो लक्षण दिखने में दो हफ्ते लग जाते थे। बुखार आ जाता था। सुस्ती छाने लगती थी। सिर में दर्द होने लगता था। गले में खराश हो जाती थी। उल्टियां होने लगती थी। दो से तीन बीतते-बीतते शरीर के तापमान में गिरावट आने लगती थी।
चेहरे के साथ शरीर पर चकत्ते निकलने लगते थे। कुछ दिन बीतते थे तो सिर में भी चकते उभरने लगते थे। फिर जख्म बनने लगे थे। मुंह के अंदर, गले में, नाक के अंदर दाने बन जाते थे। द्रव भरा होता था इनके अंदर। फैलते चले जाते थे। कई बार आपस में कुछ दाने जुड़ भी जाते थे। फैलते-फैलते त्वचा का बड़ा हिस्सा घेर लेते थे। तीन हफ्ता शुरू होता था, तो पपड़ियां बनने लगती थीं। फिर शुरू होता था इनका त्वचा से अलग होना। वैसे, गंभीर चेचक में लघु वायरस से बहुत कम ही बदलते थे।
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जैसे कोरोना वायरस का संक्रमण फैल रहा है, चेचक का भी फैलता था। कोरोना छींकने, खांसने, थूकने आदि से फैल रहा। चेचक संक्रमित इंसान के फोड़े से फैलता था। उसकी सांसों से निकलने छीटों से फैलता था। बिस्तर में वायरस के रहने से फैलता था। कपड़े से भी इसका प्रसार होता था। जब तक अंतिम पपड़ी निकल कर अलग नहीं हो जाती थी, संक्रमण इसका फैलता ही रहता था।
वेरिओला मेजर वायरस के संपर्क में आते थे, उनमें से करीब 30 फीसदी दुनिया छोड़ जाते थे। संक्रमण का शिकार होने पर दूसरे हफ्ते में ज्यादा ऐसा होता था। ठीक होने पर दाग भी रह जाते थे। कॉर्नियल निशान की वजह से कई बार दिखना भी बंद हो जाता था। कई अनुमान बताते हैं कि करीब 30 करोड़ की जान चेचक से 20वीं शताब्दी में चली गई थी।
एक वक्त था, जब चेचक का कोई इलाज नहीं था। माता का प्रकोप लोग मान रहे थे इसे। कई ने तो छुआछूत मान लिया था। प्रार्थना करके निजात पाने की कोशिश रते थे। फिर लोगों ने कुछ निष्कर्ष निकाले। यह कि घर में किसी को चेचक हो तो कोई भी घर से बाहर न निकले। बस इसी से महामारी से निजात पा सकते हैं। तब लोग नहीं जानते थे कि यही लॉकडाउन है। चेचक का जब प्रकोप था, तब भी लोग लाॅकडाउन में ही रहते थे। क्वारंटाइन किये जाते थे लोग। बाद में भारत की सरकार ने तेजी से इस पर काम किया। संक्रमण को आखिरकार रोका गया। संभव कैसे हुआ? इसलिए कि बड़े-बुजुर्गों ने तालाबंदी कर दी यानी कि लाॅकडाउन कर दिया।
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एडवर्ड जेनर (Edward Jenner) ने 1976 में ढूंढ़ ही निकाला टीका चेचक का। खोज के बाद शुरू हो गया टीके का इस्तेमाल। फोड़ों से जो पदार्थ निकलता है, उसके संपर्क में आने से चेचक होता था। टीका ने इससे सुरक्षा दिला दी। जेनर की खोज ने बहुत बड़ा काम कर दिखाया। दुनियाभर में चेचक के टीके बनने लगे। वाणिज्यीकरण भी हो गया इसका। कम होते चले गये मामले। सोमालिया में 1977 में अंतिम बार चेचक को देखा गया। WHO ने 1980 में आधिकारिक रूप से चेचक समाप्त कहकर चेचक के उन्मूलन की घोषणा कर दी।