भारतीय इतिहास में बहादुर राजाओं के साथ कई ऐसी रानियां भी हुई हैं, जिन्होंने अपनी बहादुरी और अपनी वीरता से दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए थे। इन्हीं में से एक थीं पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह की छोटी पत्नी रानी जिंद कौर। उन्हें इसलिए याद किया जाता है, क्योंकि पति की मौत हो जाने के बाद भी उन्होंने अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके। पंजाब का शासन ही केवल इन्होंने नहीं संभाला, बल्कि अंग्रेजो के खिलाफ ऐसी कठोर नीतियां इन्होंने अपनाई की अंग्रेज भी इनके डर से कांपने लगे। पंजाब की इस वीरांगना रानी जिंद कौर की जिंदगी लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गई। यहां हम आपको इन्हीं की जिंदगी से जुड़ी ऐसी चीजों के बारे में बता रहे हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद आपको यह एहसास होगा कि और रानी जिंद कौर की स्मृति को आज भी जिंदा रखना क्यों जरूरी है।
महाराजा रणजीत सिंह के यहां वर्ष 1817 में जन्मीं रानी जिंदा कर के पिता सरदार मन्ना सिंह कुत्तों की रखवाली का काम करते थे, जिनके अनुरोध पर महाराजा रणजीत सिंह ने उनकी बेटी को अपनी पत्नी बना लिया था। कई शादियां की थी महाराजा रणजीत सिंह ने, लेकिन उन्हें खड़क सिंह नाम का केवल एक ही बेटा था, जो भी प्रायः अस्वस्थ ही रहता था। रानी जिंदा कौर बेहद खूबसूरत थीं और उनसे शादी करने के बाद उन्हें एक बेटा हुआ, जिनका नाम उन्होंने दिलीप सिंह रखा था। दिलीप सिंह में ही महाराजा रंजीत सिंह अपने उत्तराधिकारी की झलक देखते थे। जब 1839 में महाराजा रणजीत नहीं रहे तो इसके बाद पंजाब में पूरी तरह से अराजकता का माहौल पैदा हो गया और सत्ता के लिए संघर्ष भी होने लगा। इस दौरान कई गट भी बन गए। इस स्थिति में भी रानी जिंद कौर ने हार नहीं मानी। एक बेहद ताकतवर गुट को वे अपने पक्ष में करने में कामयाब रहीं।
वर्ष1843 में महज 5 वर्ष की उम्र में उन्होंने दिलीप सिंह को सिंहासन पर बैठा दिया और उनके नाबालिग होने की स्थिति में उनकी संरक्षिका बनकर रानी जिंद कौर ने बेहद कुशलता के साथ शासन करके सभी को हतप्रभ कर दिया। जनता को उनका शासन इतना पसंद आया कि उनके काम को देखते हुए पंजाब में उन्हें सिख समुदाय की मां के नाम से जाना जाने लगा। अंग्रेजो के खिलाफ रानी जिंद कौर ने खूब संघर्ष किया। उन्होंने अपने वजीर राजा लाल सिंह के साथ मिलकर अपनी सेना को खूब शक्तिशाली बनाया, ताकि अंग्रेजों का डटकर सामना किया जा सके। इस तरह से महाराजा रणजीत सिंह की सेना एक बार फिर से सशक्त बन गई थी।
रानी के बढ़ते प्रभाव से अंग्रेज बेहद ख़ौफ़ज़दा हो गए थे। वर्ष 1845 में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध जब पहला आंग्ल युद्ध शुरू हुआ तो इसमें खुद के जनरलों के विश्वासघात की वजह से रानी को हार का मुंह देखना पड़ा था। फिर भी युद्ध के वक्त रानी जिंद कौर ने अपनी सैन्य बल के पराक्रम से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। अंग्रेज उनसे इतना डरने लगे कि उन्होंने रानी को विद्रोही रानी तक कह कर संबोधित करना शुरू कर दिया था। ब्रिटिश सरकार उनके कठोर फैसले से बेहद नाराज रहने लगी थी। रानी उनकी नजरों में चुभ रही थीं। पहला युद्ध जब समाप्त हो गया तो रानी और ब्रिटिश शासन के बीच एक संधि भी हुई थी। इस संधि के अनुसार राजकुमार दिलीप सिंह की वे संरक्षिका बनी रहीं। हालांकि, रानी जिंद कौर ने अंग्रेजो के खिलाफ योजनाएं बनाना बंद नहीं किया। ऐसे में अंग्रेजी सरकार को उन पर शक रहने लगा। बाद में 1848 में एक अभियोग उन पर चला कर अंग्रेजों ने उन्हें लाहौर से हटा दिया। इसके बाद रानी के नहीं रहने से पंजाब बेहद कमजोर हो गया और अंग्रेजों ने इस पर कब्जा कर लिया।
चुनार के किले में रानी जिंद कौर को नजरबंद करके रखा गया था। लॉर्ड डलहौजी ने उन्हें लेकर कहा था कि राज्य के सभी सैनिकों की तुलना में वे अधिक कीमती हैं। किसी तरह से नौकरानी का भेष बनाकर वे 1849 में भाग निकली थी और काठमांडू में जाकर उन्होंने शरण ले लिया था। इतिहासकारों के मुताबिक 1857 की क्रांति में भी उन्होंने कश्मीर के महाराजा के साथ मिलकर बढ़-चढ़कर भाग लिया था। हालांकि उनके 9 साल के बेटे को अंग्रेजों ने लंदन भेज दिया था। अपने बेटे से मिलने के लिए वे हमेशा तड़पती रहीं, क्योंकि अंग्रेज उन्हें उनसे नहीं मिलने दे रहे थे।
कई वर्ष बीत जाने के बाद इंग्लैंड में पले-बढ़े और ईसाई धर्म ग्रहण कर लेने वाले ब्लैक प्रिंस के नाम से जाने जानेवाले दिलीप सिंह अपनी मां से 1861 में मिल पाए थे। अपनी मां को लेकर वे इंग्लैंड चले गए थे। रानी जिंद कौर ने अपने बेटे को कई खत लिखे थे, लेकिन ये खत उनके बेटे तक नहीं पहुंचने दिए गए। एक खत में उन्होंने लिखा था, जिस बच्चे को मैंने 9 महीने तक अपनी कोख में पाला है, ब्रिटिश सरकार ने मुझे उससे अलग कर दिया है। जीवन के अंतिम पड़ाव में जब दिलीप सिंह की अपनी मां से मुलाकात हुई थी तब तक वह एक आंख से नेत्रहीन भी हो गई थीं। इंग्लैंड में ही 1863 में रानी जिंद कौर का निधन हो गया। पंजाब में उनका अंतिम संस्कार करने की अनुमति दिलीप सिंह को नहीं मिली तो उन्होंने मुंबई में उनका अंतिम संस्कार किया और अपनी मां के नाम से एक स्मारक भी बनवाया।