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सियाचिन ग्लेशियर को लेकर अक्सर चर्चा होती रहती है। एक ओर भारत की सेना तो दूसरी ओर पाकिस्तान की सेना यहां हमेशा आंख गड़ाए बैठी हुई नजर आ जाती है।

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गर्व से सीना चौड़ा कर देगी भारत के इस नन्हे क्रांतिकारी की कहानी

देश की आजादी के लिए कितने ही क्रांतिकारियों ने कुर्बानी दी। बाजी राउत, जिन्होंने केवल 12 वर्ष की उम्र में दुश्मनों से लोहा लेते हुए अपनी शहादत दे दी थी।
Information Anupam Kumari 26 November 2019

देश जब परतंत्रता की जंजीरों में जकड़ा हुआ था तो इसे आजादी दिलाने के लिए ना जाने कितने ही क्रांतिकारियों ने अपनी जान कुर्बान कर दी। ऐसे ही एक क्रांतिकारी के बारे में यहां हम आपको बताने जा रहे हैं, जिन्हें सबसे कम उम्र का क्रांतिकारी माना जाता है। इस वीर क्रांतिकारी की कहानी शायद ही आपने सुनी होगी। इस कहानी को पढ़ने के बाद आपकी छाती गर्व से चैड़ी जरूर हो जाएगी। इस क्रांतिकारी का नाम था बाजी राउत, जिन्होंने केवल 12 वर्ष की उम्र में दुश्मनों से लोहा लेते हुए अपनी शहादत दे दी। उड़ीसा के धेनकनाल के एक छोटे से गांव में बाजी राउत 1926 में जन्मे थे। बचपन में ही सिर से पिता का साया उठ गया था और मां पाल-पोस कर उन्हें बड़ा कर रही थीं।

धेनकनाल में उस वक्त राजा शंकर प्रसाद सिंहदेव था, जिसके शोषण से गांव वाले त्रस्त हो गए थे। यहां तक कि बाजी की मां भी इसका शिकार हो गई थी। धीरे-धीरे गांव वालों का गुस्सा उसके खिलाफ बढ़ता ही जा रहा था। इसी शहर में रहने वाले वैष्णब चरण पटनायक जो कि इस गांव में वीर वैष्णव के नाम से प्रसिद्ध थे, उन्होंने इस चिंगारी को सुलगाना शुरू कर दिया। राजा के खिलाफ इन सब ने मिलकर प्रजामंडल की स्थापना कर दी, जिसका अर्थ होता है लोगों का आंदोलन। इसमें उन्होंने एक और शाखा बनाई, जिसका नाम उन्होंने बानर सेना रखा। इसमें बच्चों को शामिल किया गया था। बाजी राउत की उम्र बेहद कम थी। फिर भी वे इसमें शामिल हो गए थे। पटनायक भारतीय रेलवे में पेंटर के तौर पर काम करने लगे, क्योंकि इसके जरिए उन्हें एक जगह से दूसरी जगह जाने में आसानी होती थी और वे जहां भी रेलवे पास के जरिए जाते थे, वहां लोगों से मिलकर उन्हें राजा के खिलाफ भड़काने में कामयाब होते थे। वे उन्हें बताते थे कि यह राजा किस तरह से गरीबों का खून चूस रहा है। धीरे-धीरे पटनायक ने अपना नेटवर्क काफी फैला लिया। यहां तक कि कटक में उन्होंने नेशनल कांग्रेस के नेताओं से भी मुलाकात करके उनका ध्यान प्रदेश की दयनीय हालत की ओर दिलाने की कोशिश की।

राजा का तानाशाही रुख

बाद में जब उन्होंने मार्कि्सस्ट क्रांतिकारी विचारों को पढ़ा तो मार्क्स के विचारों से वे बेहद प्रभावित हो गए। हारा मोहन पटनायक, जो कि इसी गांव के थे, उनके साथ मिलकर उन्होंने प्रजामंडल आंदोलन शुरू कर दिया। यह प्रजामंडल आंदोलन धीरे-धीरे जोर पकड़ने लगा। लोग इसमें शामिल होने लगे। इसे देखकर राजा बुरी तरह से घबरा गया। ऐसे में पड़ोसी राजाओं ने भी उसकी मदद के लिए हाथ बढ़ाना शुरू कर दिया। यहां तक कि अंग्रेजों ने भी कलकत्ता से 250 बंदूकधारियों वाली एक सेना भेज दी, ताकि किसी भी तरह से इस विद्रोह को दबाया जा सके। राजा ने तानाशाही रुख अपना लिया। आंदोलन को बुरी तरह से रौंदने की कोशिशें होने लगी। लोगों के बीच दहशत का माहौल बनाने की कोशिश हो रही थी, ताकि किसी भी तरीके से लोग विद्रोह से पीछे हट जाएं। यहां तक कि लोगों पर राजा की ओर से राज भक्त कर और ईमानदारी कर भी लगाया जाने लगा। इन्हीं नहीं चुकाने वालों के घरों को हाथियों के पैरों तले कुचलवा दिया जाता था। उनके संपत्ति हड़प ली जाती थी और उनका खूब शोषण होता था।

आंदोलन ने पकड़ा जोर

इसके बाद तो उड़ीसा के लोगों का गुस्सा और भड़क गया। आंदोलन अब पहले से भी मजबूत होने लगा। राजा को अब लगा कि इस आंदोलन के नेता वैष्णब को ही निशाना बनाया जाए। ऐसे में उनकी पुरखों की सभी जमीनें जब्त कर ली गईं। यहां तक कि हारा मोहन के घर पर भी सितंबर, 1938 में छापा मारा गया और उन्हें हिरासत में ले लिया गया। हालांकि वैष्णब पटनायक भाग खड़े हुए। अंग्रेज और राजा की सेना उनकी खोज में लग गई। इसी बीच उन्हें यह खबर मिली कि वीर भुबन नाम के एक गांव में वे छिपे हुए हैं। ऐसे में सेना वहां पहुंच गई और गांव वालों से पता पूछना शुरू कर दिया। किसी ने भी कुछ नहीं बताया तो उनके घर को राजा ने तहस-नहस करवा दिया। फिर अंग्रेजों को यह खबर मिली कि वैष्णब नदी पार करके गांव से भी भाग निकले हैं। दरअसल वैष्णब ब्रह्माणी नदी पार करके दूसरी ओर भाग गए थे, ताकि गांव वालों को बचाया जा सके। सेना की एक टुकड़ी जब उधर जाने लगी तो लोगों ने उन्हें रोकने की कोशिश की। ऐसे में उन पर अंधाधुंध गोलियां राजा की ओर से चलवा दी गईं, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई।

वीर बाजी की शहादत

सेना की एक टुकड़ी ब्रह्माणी नदी के एक घाट पर उस नाव के पास 11 अक्टूबर, 1938 की रात जा पहुंची, जहां 12 साल के बाजी राउत पर सुरक्षा का जिम्मा था। सैनिकों ने बाजी से उन्हें उस पार छोड़ने के लिए कहा, लेकिन बाजी ने उनकी बात नहीं मानी। बार बार बोलने के बाद भी जब बाजी ने उन्हें मना कर दिया तो अंग्रेज सैनिकों ने बाजी के सिर पर बंदूक की बट से तेज प्रहार किया। इसके बाद बाजी जमीन पर गिर पड़े। फिर भी वे जोर-जोर से चिल्लाते रहे, ताकि गांव वालों को पता चल जाए कि सैनिक आ गए हैं। इसके बाद फिर से उनके सिर पर सैनिकों ने प्रहार किया और एक सैनिक ने तो उन पर गोली भी चला दी। इस तरह से महज 12 वर्ष की उम्र में इस क्रांतिकारी ने अपने देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। गांव वाले जब वहां पहुंचे और छोटे से बच्चे की यह हालत देखी तो उनका गुस्सा और भड़क गया। उन्हें गुस्से में आते हुए देखकर ब्रिटिश सैनिक वहां से भाग निकले।

हर आंख हुई नम

बाद में शहीदों के शवों को अंतिम संस्कार के लिए वैष्णब ट्रेन से कोलकाता ले गए। इसमें वीर बाजी राउत का शव भी शामिल था। कोलकाता की गलियों में जब उनकी शव यात्रा निकली और हजारों लोगों की भीड़ जमा हुई तो नन्हे से बाजी राउत का शव देखकर लोगों की आंखें नम थीं। छोटी सी उम्र में अपनी शहादत देकर बाजी रावत ने उस वक्त देश की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे बहुत से लोगों को प्रेरणा दी और उनके इरादों को मजबूत बनाया कि आजादी अब ज्यादा दूर नहीं है।

नन्हे क्रांतिकारी की शहादत की यह कहानी हमें यह संदेश देती है कि आज जो आजादी हमें मिली है, हम इसका मूल्य पहचाने। इस कहानी को बाकी लोगों के साथ शेयर करके आप उन्हें भी देश की आजादी की कीमत का एहसास कराने में सहयोग जरूर करें।

Anupam Kumari

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मेरी कलम ही मेरी पहचान