
कहते हैं कि राजनीति दंगी नाली है इसमें नहीं कूदना चाहिए, लेकिन अगर कूद जाओ तो फिर अपना कद प्रणब मुखर्जी जैसा रखना। एक ऐसा नेता जिसकी खुद की पार्टी के अलावा विपक्षी नेता और उसकी विचारधारा से अलग संगठन वाले भी उसे अपना मार्गदर्शक मानते हो। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी एक ऐसे ही नेता थे। कांग्रेस में प्रणब मुखर्जी ‘भीष्म पितामह’ और ‘संकट मोचक’ थे, तो वहीं भाजपा के लिए वो ‘मार्गदर्शक’ थे।
साल 1969 में पहली बार प्रणब दा राज्यसभा सदस्य के तौर पर संसद पहुंचे थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी राजनीतिक मसलों पर प्रणब मुखर्जी की समझ की कायल थीं। उन्होंने प्रणब दा को अपनी कैबिनेट में नंबर दो का दर्जा दिया था। तब प्रणब दा ने आर. वेंकटरामन, पीवी नरसिम्हाराव, ज्ञानी जैल सिंह जैसे कद्दावर नेताओं के बीच अपने काम का लोहा मनवाया था। यही वजह थी कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री के लिए प्रणब दा का नाम सबसे ऊपर था। इसके बाद 2004 में और 2009 में भी प्रणब दा को पीएम माना जा रहा था।
जहां साल 1984 में वो पीएम बनने का सपना देख रहे थे, तो वहीं चुनावों के बाद उन्हें कैबिनेट में भी जगह नहीं दी गई था। इसका उन्हें मलाल था। बाद में उन्होंने कहा था कि जब मुझे पता चला कि मैं कैबिनेट का हिस्सा तक नहीं हूं तो हैरान रह गया। हालांकि मैंने खुद को संभाल लिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी प्रणब दा की अहमियत को बखूबी समझते थे। मनमोहन सिंह की कैबिनेट में प्रणब मुखर्जी नंबर-2 पर रहे। उन्होंने विदेश से लेकर वित्त मंत्रालय तक संभाला। यूपीए सरकार में उनकी भूमिका एक संकटमोचक की रही है।
कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने प्रणब दा को अपने आप में एक इनसाइक्लोपीडिया कहा था। उन्होंने कहा था कि ऐसे शख्स राजनीति में बहुत कम दिखते हैं। उन्होंने प्रणब दा को कांग्रेस का भीष्म पितामह बताया है। वहीं छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कहना है कि जब भी सरकार संकट में आती थी तो एक संकट मोचक के रूप में सामने प्रणब मुखर्जी होते थे। कांग्रेस नेता जनार्दन द्विवेदी की मानें तो प्रणब दा अकेले व्यक्ति थे जिनकी इतिहास और राजनीति पर गहरी पकड़ थी।
प्रणब भले ही कांग्रेसी थे लेकिन भाजपा के नेता यहां तक कि संघ भी उनको एक सच्चा ‘मार्गदर्शक’ मानता था। अटल बिहारी वाजपेयी भी उनसे बहुत ज्यादा प्रभावित थे। प्रणब दा ने साल 2017 मार्च में खुद इसका जिक्र एक कार्यक्रम में किया था। प्रणब दा ने कहा था कि मैं राज्यसभा में था। मैंने देखा कि प्रधानमंत्री अटल जी मेरी सीट की ओर आ रहे हैं। मैंने उनसे कहा था कि अटलजी मुझे बुला लेते मैं खुद आ जाता। तब अटलजी ने कहा था जॉर्ज फर्नांडीज काफी मेहनती मंत्री है कृपया उनके लिए ज्यादा तल्ख न हों। ये वो दौर था जब जॉर्ज साहब रक्षा मंत्री हुआ करते थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी प्रणब दा से खासा प्रभावित थे। जुलाई 2016 में प्रधानमंत्री मोदी ने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की तारीफ करते हुए कहा था कि जब मैं दिल्ली में नया-नया आया था तब राष्ट्रपति ने एक अभिभावक की भांति मुझे उंगली पकड़कर दिल्ली की सियासी बारिकियां सिखाई थीं। ऐसा बहुत कम लोगों में देखने का मिलता है। प्रधानमंत्री मोदी ने ये भी कहा था कि मैंने सीखा कि कैसे अलग-अलग सियासी विचारधारा के साथ लोकतंत्र के लिए कंधे से कंधा मिलाकर काम किया जा सकता है।
प्रणब दा की विचारधारा कांग्रेसी थी और उन्होंने संघ पर कटु से कटु प्रहार किए हैं। वो प्रणब दा ही थे जिन्होंने सांप्रदायिकता और हिंसा में संघ की भूमिका पर सवाल उठाए थे। उन्होंने संघ को राष्ट्र विरोधी तक बताया था और कहा था कि ऐसे किसी भी संगठन की देश को जरूरत नहीं है। लेकिन इसके बावजूद संघ के साथ उनके रिश्ते खराब नहीं थे। मोहन भागवत ने प्रणब दा को संघ के लिए एक मार्गदर्शक करार दिया और कहा कि वो राजनीतिक भेदभाव में यकीन नहीं रखते थे। यही कारण था कि 2018 में प्रणब मुखर्जी संघ के कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए थे।
प्रणब दा कांग्रेस के साथ साथ विपक्षी नेताओं के लिए भी सहज उपलब्ध थे। कह सकते हैं कि वो भारतीय सियासत के अजात शत्रु थे। लोक जनशक्ति पार्टी के संरक्षक रामविलास पासवान कहते हैं कि जब भी कोई व्यक्ति उनसे संपर्क करता था तो वो हमेश ही सही रास्ता दिखाते हुए सहायता के लिए तैयार रहते थे। चाहे अर्थव्यवस्था का मसला हो, हमारी संसदीय प्रणाली या राजनीति से संबंधित कोई मसला। प्रणब दा का मार्गदर्शन और उनका ज्ञान अद्वितीय था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का कहना है कि प्रणब मुखर्जी का पिछले 50 सालों से अधिक का जीवन भारत के 50 सालों के इतिहास को दर्शाता है।