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क्यों देश के कोने-कोने में बिखेरी गई थी जवाहर लाल नेहरू की अस्थियों की राख ?

भारत का जो आधुनिक स्वरूप आज हमें देखने को मिल रहा है, उसके लिए हमें भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का शुक्रगुजार होना चाहिए। पंडित जवाहरलाल नेहरू को आधुनिक भारत का जनक कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा। भारत को आजादी मिलने से पहले द्वितीय विश्व युद्ध की वजह से भारत की हालत और ज्यादा खराब हो गई थी। एक तो अंग्रेजों ने इस देश को जमकर लूटा था। ऊपर से द्वितीय विश्व युद्ध के कारण देश बदहाली के कगार पर पहुंच गया था। ऐसे में जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री के तौर पर जिस तरह से देश के विकास का खाका खींचा, उसी की बदौलत देश आज कई मायनों में आत्मनिर्भर बन पाया है।

अपने पैरों पर खड़ा हो सका देश

जवाहरलाल नेहरू को लेकर भले ही कई बार विवाद सामने आते रहे हों, लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं करता कि पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जो योजनाएं बनाईं, उनकी वजह से भारत में कल-कारखाने स्थापित हो सके और उद्योगों के साथ तकनीकों के क्षेत्र में भी भारत मजबूती से आगे बढ़ पाया। यह जवाहरलाल नेहरू की अंतरराष्ट्रीय नीतियों का ही परिणाम रहा कि भारत को कई देशों से सहयोग मिला, जिसके बल पर भारत धीरे-धीरे अपने पांव पर खड़ा होता चला गया। यही वजह है कि देश उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से आज भी देखता है और उन्हें नमन भी करता है।

नेहरू की अनोखी खवाहिश

आपको यह जानकर शायद हैरानी होगी कि जवाहरलाल नेहरू की जब मौत हो गई थी तो उनके अंतिम संस्कार के बाद उनकी अस्थियों की राख को देशभर में बिखेरा गया था। जी हां, जवाहरलाल नेहरू के चिता की राख देश भर में घूम-घूम कर बिखेर दिया गया था। आपको लगेगा कि आखिर ऐसा क्यों किया गया? दरअसल, जवाहरलाल नेहरू ने खुद यह इच्छा व्यक्त की थी। उन्होंने अपनी वसीयत में इसके बारे में लिखा था कि जब मेरी मृत्यु हो जाए तो उसके बाद मेरे दाह संस्कार के बाद मेरी अस्थियों की राख को देश के कोने-कोने में बिखेर दिया जाए।

नेहरू को जानें

जवाहरलाल नेहरू एक बड़े ही प्रतिष्ठित परिवार से नाता रखते थे। उनके पिता मोतीलाल नेहरू एक जाने-माने अधिवक्ता भी थे। जब नेहरू केवल 15 साल के थे, उसी दौरान हुए इंग्लैंड के हैरो स्कूल में पढ़ने के लिए चले गए थे। बाद में उन्हें कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में भी दाखिला मिल गया था, जहां से उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई पूरी की थी। पढ़ने-लिखने के मामले में पंडित नेहरू हमेशा से ही आगे रहे थे और उन्होंने स्कूल से लेकर कॉलेज तक में उत्कृष्ट प्रदर्शन करके दिखाया था।

यूं रखी थी विकास की नींव

भारत को जब 1947 में आजादी मिल गई तो नेहरू को भारत का पहला प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला। इसमें कोई शक नहीं कि वे एक दूरदर्शी नेता थे। उन्होंने भांप लिया था कि भारत को यदि आगे चलकर विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा करना है तो इसकी नींव किस तरह से डालनी पड़ेगी। यही वजह रही कि उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से भारत के विकास के अभियान की शुरुआत की। नेहरू अपने इस मिशन में लगे ही हुए थे कि उन्हें 1964 में 27 मई की सुबह को अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई। इसी दिन दोपहर के 2:00 बजे पंडित नेहरू हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कह गए।

चर्चा का केंद्र बन गयी वसीयत

जब भारत के इस महान सपूत पंडित जवाहर लाल नेहरू का निधन हो गया तो इसके बाद उनकी वसीयत खोली गई। नेहरू की वसीयत इस वक्त चर्चा का केंद्र बन गई थी। इसकी वजह भी बेहद खास थी। अपनी इस वसीयत में पंडित नेहरू ने एक गजब की इच्छा व्यक्त की थी। इसमें उन्होंने लिखा था कि जब मेरी मौत हो जाए तो इसके बाद मेरी अस्थियों की राख के एक मुट्ठी हिस्से को प्रयाग के संगम में बहा देना। साथ ही उन्होंने लिखा था कि मैं चाहता हूं कि इसके बाद मेरा शरीर पूरे हिंदुस्तान के दामन को चूमे। अंत में मेरी ख्वाहिश है कि मैं समुंदर में जा मिलूं। जवाहरलाल नेहरू की अंतिम इच्छा को जानकर हर कोई हैरान रह गया था। हर कोई उन्हें सैल्यूट कर रहा था।

मौत के बाद भी हिंदुस्तान के दामन को चूमा

इसके अलावा भी जवाहरलाल नेहरू की एक और इच्छा इस वसीयत में लिखी हुई थी। इसमें उन्होंने लिखा था कि मेरी मौत के बाद मेरी अस्थियों की राख को हवाई जहाज से खेतों में उड़ा देना, ताकि इस देश के हर किसान, हर मजदूर के साथ मैं इस देश के जर्रे-जर्रे में हमेशा के लिए समा जाऊं। वसीयत में लिखी इन बातों से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि जवाहरलाल नेहरू के दिल में अपने देश के प्रति, अपने देश के किसानों के प्रति, अपने देश के मजदूरों के प्रति और अपनी मातृभूमि के प्रति कितना प्यार था। जवाहरलाल नेहरू की इस अंतिम ख्वाहिश को पूरा भी किया गया और देश के कोने-कोने में ले जाकर उनके अस्थियों की राख को बिखेर दिया गया। इस तरह से भारत का यह महान सपूत देश के जर्रे-जर्रे में हमेशा के लिए बस गया।