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नोटा बना नेता विहीन राजनीतिक आंदोलन

जिसनें लोकतंत्र की स्थापना की, आजादी के समय जिसने लोकतंत्र की नींव रखी आज वहीं आम जनता अपने हक के लिए तरसती दिखाई दे रही है…जहां आम व्यक्ति बड़ी उम्मीदों के साथ अपने नेता का चयन करता है. और उम्मीद करता है कि जिस नेता को उसने चुना है वह उसके विकास के लिए हर मुमकिन काम करेगा…लेकिन फिर नेता प्रचार-प्रसार करके, विजयी होकर अपने वादें और सत्ता की नींव को भूल जाता है. तो जरा सोचिए ऐसे में एक मतदाता के पास  मतदान के बहिष्कार के अलावा क्या विकल्प बचता है ?

जनता का भरोसा हर बार टूटता रहा. औऱ मतदाताओं के मन में घृणा की भावना पनपने लगी. तब ऐसे में मतदाता के पास कोई विकल्प नहीं था कि वो किसे चुने.

ऐसे में 2015 से नोटा की शुरूआत के बाद राजनीति में हड़कंप मच गई. और माना जाए तो ये एक अच्छी शुरूआत भी हुई. हरियाणा में जब सबसे पहले नगर निगम चुनाव हुए तो उसमें चुनाव आयोग ने ये निर्णय लिया कि यदि चुनाव में नोटा विजयी होता है तो फिर ऐसे में वहां के सभी प्रत्याशी अयोग्य घोषित कर दिए जाएंगे. और शायद मतदाता चाहता भी यहीं था. क्योकिं नोटा मतलब “नन ऑफ द अबॉव” इनमें से कोई नहीं.

राजनीति में नोटा कैसे बना गले की घंटी?

देखते ही देखते नोटा एक ऐसा आंदोलन बन गया जिसने सभी की छुट्टी करदी. और 2013 के विधानसभा चुनाव में नोटा के हैरतअंगेज नतीजे देखने को मिले. और नोटा 15 लाख वोटों से विजयी हुआ. अब आप जरा सोचिए जहां किसी उम्मीदवार को जीतने के लिए 1-1 वोट जरूरी होता है, तब वहां नोटा अपना रंग दिखाता है. यानि की नोटा नजरअंदाज करने वाली चीज नहीं है. विचार करने योग्य एक बड़ा सवाल है.

बीते विधानसभा चुनावों में भी नोटा बटन दबाने वाले मतदाताओं की संख्या लाखों में रही. हालांकि ये  ही है कि जहां एक ओर मतदान के लिए जागरुकता अभियान चलाए जाते है. वहीं दूसरी ओर लोगों को नोटा की सही जानकारी दिए जाने के कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं. जिससे मतदाता कुछ भी करने को मजबूर हो गए हैं.

नोटा का भय भयकारी

पहले भले ही सूरत, शौहरत, बागीपन से चुनाव जीते गए हो लेकिन अब पब्लिक है ये सब जानती है. मतलब उसके पास नोटा का विकल्प है. इसी के चलते अब नोटा का भय भयकारी हो गया है. औऱ लोकसभा चुनाव में जीत के लिए पक्ष औऱ विपक्ष दोनों मतदाताओं को लुभाने के प्रयास में लगे हुए है. अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए जरुरी मुद्दों का लालच दे रहे हैं. हाल ही में श्रवण आरक्षण भी इसी का पनपता एक पौधा है.

सही मायने में नोटा एक नेता विहीन आंदोलन बन गया है जो कि इस अस्वच्छ, घृणित और कटुतापूर्ण माहौल में जरूरी भी है.