TaazaTadka

आखिर क्यों वामपंथी से दक्षिणपंथी बन गए हैं मिथुन चक्रवर्ती

बॉलीवुड में एक वक्त पर राज करने वाले मिथुन चक्रवर्ती भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए हैं। और इसी के साथ शायद अब भाजपा की मुख्यमंत्री पद के चेहरे की तलाश खत्म हो गई है। मिथुन चक्रवर्ती पश्चिम बंगाल की राजनीति के कोई नए खिलाड़ी नहीं है। वो लंबे समय से राजनीति में हाथ आजमा रहे हैं। पश्चिम बंगाल में अभी तक 2 खेमे सबसे ज्यादा मजबूत थे, एक तो वामपंथ था और दूसरा कांग्रेस-टीएमसी का था। इन दलों ने सियासी राज किए हैं। लेकिन अब भाजपा भी पूरी टक्कर में है। ऐसे में मिथुन चक्रवर्ती इन तीनों खेमों में रह चुके हैं।

वामपंथी मिथुन बने दक्षिणपंथी

एक समय था जब खुद को वामपंथी बताने वाले मिथुन ने कभी लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के समर्थन में भी प्रचार किया था। हालांकि साल 2011 में लेफ्ट की सरकार जाने के बाद उन्होंने टीएमसी का दामन भी थाम लिया और इसके बाद वो सक्रिय राजनीति में आ गए। लेकिन साल 2016 के आखिर में मिथुन ने राज्यसभा के सांसद पद से इस्तीफा दे कर राजनीति से संन्यास ले लिया था। 

ऐसा माना जाता है कि शारदा चिटफंड घोटाले में नाम आने के बाद मिथुन परेशान हो गए थे। इस मामले में ईडी ने उनसे पूछताछ भी की थी। करीब तीन साल तक राज्यसभा का सदस्य रहने के दौरान वो महज तीन बार ही संसद में गए थे। अब ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर टीएमसी की राज्यसभा की सदस्यता बीच में ही छोड़ने वाले मिथुन को दोबारा राजनीति में आने और खेमा बदलने की जरूरत क्यों पड़ी।

क्या भाजपा में शामिल हो ना मिथुन की मजबूरी

तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सौगत रॉय ने मिथुन चक्रवर्ती के भाजपा में शामिल होने पर कुछ उनकी मजबूरी की ओर इशारा किया है। उन्होंने कहा कि अब मिथुन की कोई विश्वसनीयता नहीं है ना ही लोगों के बीच उनका कोई प्रभाव है। सौगत रॉय ने कहा कि मिथुन पहले स्टार थे, लेकिन अब नहीं हैं। वो मूल रूप से नक्सली थे। वो सीपीएम में शामिल हुए, फिर टीएमसी में आ गए और राज्यसभा सांसद बन गए। भाजपा ने उन्हें ईडी का डर दिखाया और फिर उन्होंने राज्यसभा छोड़ दी। अब वो भाजपा में शामिल हो गए।

तृणमूल ज्वाइन करने से पहले मिथुन का लेफ्ट कनेक्शन था। राज्य में लेफ्ट फ्रंट की सरकार के दौर में मिथुन की गिनती सीपीएम और खासकर तब परिवहन मंत्री रहे सुभाष चक्रवर्ती के सबसे करीबी लोगों में होती थी। उनको अक्सर कई कार्यक्रमों में एक साथ देखा गया था। कहा जाता है कि जब भी मिथुन कोलकाता आते थे तब चक्रवर्ती के घर लंच या डिनर के लिए जरूर जाते थे। चक्रवर्ती भी मिथुन के लिए होटल में रुकने का फ्री इंतजाम कराते थे। 3 अगस्त 2009 को जब सुभाष चक्रवर्ती का निधन हुआ तो मिथुन बंगाल सरकार के सचिवालय उन्हें अंतिम विदाई देने भी गए थे।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक जब भी सीपीएम सरकार के दौरान फंड जुटाने के लिए कार्यक्रम किए जाते तो मिथुन उसमें बिना कोई पैसा लिए लाइव परफॉर्मेंस देते थे। लेकिन साल 2000 में ज्योति बसु के बाद जब बुद्धदेब भट्टाचार्जी बंगाल (Buddhadeb bhattacharjee )के सीएम बने तब से मिथुन का लेफ्ट से मोहभंग होने लगा था। बुद्धदेब ने मसाला हिंदी फिल्मों को कम सम्मान दिया और सुभास चक्रवर्ती के अधिकतर निर्णयों और कामों को अस्वीकार कर दिया।

क्या मिथुन के प्रशंसकों की भीड़ भाजपा का वोट बैंक बनेगी?

गौरतलब है कि भाजपा इस बार बंगाल का किला भेदने के लिए चुनाव अभियान में कोई कसर नहीं छोड़ रही। मिथुन से पहले भी कई फिल्मी सितारों को पार्टी में शामिल किया गया है। लेकिन कभी लेफ्ट और फिर टीएमसी के करीबी रहे मिथुन क्या अपने प्रशंसकों की भीड़ को भाजपा के वोट बैंक में तब्दील कर पाएंगे ये बड़ा सवाल है। राजनीति में कुछ भी स्थिर नहीं होता, ऐसे में मिथुन का पॉलिटिकल करियर अल्ट्रा लेफ्ट से सेंटर लेफ्ट और अब राइट विंगर हो गया है। ऐसे में अब उनकी राजनीति में दूसरी पारी कितनी कामयाब रहेगी और वो राजनेता की भूमका में अपनी रियल लॉइफ में क्या छाप छोड़ पाएंगे इसकी तस्वीर बंगाल के चुनावी नतीजों के साथ ही साफ हो पाएगी।