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लेबर लॉ को बदल देना संवैधानिक रूप से कहां तक सही हो सकता है

कोरोना काल में पीएम मोदी ने चौथी बार भाषण दिया और इसमें भी लोगों को कुछ हाथ नहीं लगा। न तो किसानों की बात हुई, न मजदूरों की। हां एक बार प्रधानमंत्री ने लेबर, लैंड, लिक्विडिटी और लॉ की तुकबंदी कर दी थी और कह दिया था कि इन चारों पर ध्यान देने की जरूरत है। हालांकि इससे पीएम की मंशा तो समझ नहीं आती है, लेकिन कुछ राज्यों में लैंड से जुड़े कानूनों में तब्दीली की जा रही है, लेबर लॉ को बदला जा रहा है और असंवैधानिकता की हदें पार की जा रही है। लेकिन सरकार ये कदम आपके भले के लिए ही उठा रही है।

फिलहाल मनमर्जी कर सकती है सरकार

कोरोना के समय में सरकार और नागरिकों के बीच का शक्ति संतुलन बिगड़ा हुआ है। सरकार फिलहाल जो मर्जी कर सकती है, क्योंकि जनता तो सड़कों पर आने वाली नहीं है। हो-हल्ला होगा भी तो मीडिया में और सोशल मीडिया पर, लेकिन वहां पर भी सरकार की आर्मी तैयार है। इसी का फायदा उठा कर कई राज्य सरकारों ने लेबर लॉ बदल दिया। यूपी की योगी सरकार ने तो 38 में से 35 लेबर कानूनों को तीन साल के लिए खतम ही कर दिया है। लेकिन क्या सरकार लेबर लॉ को अचानक खारिज कर सकती है? इसको समझना पहले जरूरी हैं।

क्या ये संवैधानिक रूप से सही है

दरअसल लेबर कानून कोई सरकारी आदेश नहीं है। ये एक कानून है। राजनीति, संविधान, कानून, नियम जैसे विषयों में दिलचस्पी रखने वाला कोई भी विद्यार्थी पहली नजर में कहेगा कि अचानक से लेबर लॉ को हटा देना असंवैधानिक है। यहां पर संविधान के कई प्रावधानों का अनदेखा कर दिया गया है। उत्तर प्रदेश सरकार ने अध्यादेश के जरिये लेबर लॉ को स्थगित किया है। कानून के जानकार कहते हैं कि अध्यादेश तभी लाया जा सकता है, जब विधायिका कार्यरत न हो और ऐसी परिस्थिति बन जाए कि बिना अध्यादेश के काम न चल सके। अध्यादेश और कानून में कोई फर्क नहीं होता है लेकिन अध्यादेश जारी करने के बाद सदन की पहली बैठक के 6 महीने के अंदर अध्यादेश को सदन से पास कराना होता है।

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योगी सरकार पर ऐसी कौन सी आफत आई

ये सवाल लाजिम है कि यूपी सरकार को ऐसी कौन सी जरूरत पड़ गई कि लेबर लॉ में बदलाव के बिना काम नहीं हो पा रहा था। इन गरीब मजदूरों ने ऐसा क्या कर दिया था कि लेबर लॉ को खारिज करना जरूरी हो गया था। मालिकों को ऐसी कौन सी तकलीफें आ रही थी कि लेबर लॉ हटाए बिना उनकी परेशानी का हल नहीं हो सकता था। अर्थव्यवस्था में जब मांग पूरी तरह से शांत है और आने वाले दिनों में बहुत धीमा रहने वाला है तो आर्थिक वृद्धि जैसा तर्क देकर लेबर लॉ में बदलाव क्यों किया गया? लेबर लॉ संविधान के समवर्ती सूची का विषय है। इस पर केंद्र और राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार है। नियम ये है कि अगर केंद्र और राज्य के कानून के बीच में टकराव होगा तो केंद्र का कानून लागू होगा। संविधान का अनुच्छेद 213 कहता है कि अगर राज्य सरकार केंद्र के ऐसे कानून में बदलाव करना चाहती है जो समवर्ती सूची के विषय से जुड़ा है तो उसके लिए राष्ट्रपति की अनुमति लेनी होती है। जिसका साफ मतलब है कि पहले केंद्र सरकार से सलाह ली जाएगी, तभी इस कानून में बदलाव हो सकता है। इसका मतलब साफ है कि केंद्र सरकार को पता था कि योगी सरकार लेबर लॉ में बदलाव करने वाली है। यानी की ये पीएम मोदी को भी पता है।

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अगर लेबर लॉ खत्म कर दिया गया है तो होगा क्या? वही होगा जो बिना कानून के होते आया है। वही जो देश के 90 फीसदी अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़े मजदूरों के साथ होता रहा है। कम मजदूरी पर अधिक से अधिक काम लेना और ऐसे माहौल में काम करना जो नरक से बदतर हो। मजदूर संगठन तो कहते आये हैं कि भारत का लेबर कानून बहुत जटिल है। संगठित क्षेत्र के लोगों पर लागू होता है। तकरीबन 90 फीसदी से अधिक मजदूर इससे दूरही रह जाते हैं। लेकिन लेबर लॉ से मजदूरों के पास राज्य से थोड़ी बहुत मोल भाव की ताकत है। इस ताकत को भी छीन लिया गया है।