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प्रवासी मजदूरों को घर भेजते वक्त थोड़ा सम्मान भी दे दो…

जिंदगी क्या किसी मुफलिस (गरीब) की कबा (ढीला पहनावा) है जिसमें… हर घड़ी दर्द के पैबंद (बांधना) लगे जाते हैं….. भारत के लाखों श्रमिकों की बेबसी को फैज अहमद फैज के इस शेर से दर्शाया जा सकता है। ये श्रमिक मजदूर महानगरों की चमचमाती गाड़ी के वो पहिए हैं जिनकी किस्मत में भले ही सड़क पर घिसना लिखा हो लेकिन इनके बिना गाड़ी नहीं चल सकती है। लेकिन जब कोरोना महामारी के दौर में इनकी घर वापसी का सवाल आया है तो हमारे सिस्टम ने इन्हें शरीर के किसी सड़े हुए अंग की तरह अलग-थलग सा कर दिया है। प्रवासी मजदूरों को वापस उनके घर को भेजने का सरकार का फैसला अचकचाहट और हड़बड़ी से भरा है।

एक राज्य से दूसरे राज्य की तरफ लोगों का इतनी बड़ी तादाद में पलायन शायद आजादी के बाद पहली बार हो रहा होगा। लेकिन सरकार के फैसलों में न तो कोई योजना दिखी, न दूरदर्शिता और संवेदनशीलता तो बिलकुल भी नजर नहीं आ रही है। केंद्र सरकार ने एलान किया कि मजदूरों की घर वापसी के लिए स्पेशल ट्रेन चलेंगी। इससे सिर्फ 24 घंटे पहले ही मजदूरों को घर भेजने की घोषणा करते वक्त सरकार ने कहा था कि ट्रेन नहीं चलेंगी। जाहिर तौर पर ये अफरा-तफरी की बुनियाद पर लिया गया अजीब फैसला था।

मजदूरों के लिए ऐसी प्रक्रिया क्यों

ताजा फैसले में कहा गया है कि प्रवासी मजदूरों की घर वापसी के लिए लोगों को सरकारी पोर्टल पर ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करवाना होगा। जिसके बाद उन्हें कोरोना फ्री होने का सर्टिफिकेट लेना होगा और किराया भी खुद ही देना पड़ रहा था। लेकिन बाद में सरकार पर जब आरोप लगे, विपक्ष ने हंगामा किया, सोनिया गांधी ने टिकट के पैसे देने का ऐलान किया तो फिर सरकार ने जल्दी में ये फैसला भी पलटा। हैरानी होती है कि 4 मार्च को सरकार ने लोकसभा मे बताया था कि कोरोना संकट के दौरान चीन में फंसे 647 भारतीयों को लाने के लिए दो स्पेशल फ्लाइट चलाईं गईं जिस पर करीब 6 करोड़ रूपये का खर्च आया जो एयर इंडिया ने खुद उठाया था। लेकिन प्रवासी मजदूरों को घर वापिस लाने के लिए पहले टिकट के पैसे लिए गए।

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विदेशी यात्री हवाई जहाज से फ्री में आएंगे और घर में फंसे मजदूरों से ट्रेन का किराया वसूला जाएगा? ये भेदभाव क्यों? खैर सोशल मीडिया से लेकर विपक्ष के सियासी खेमे तक में शोर मचा तो सरकार ने मजदूरों के लिए फ्री टिकट की घोषणा तो कर दी लेकिन मजदूरों की दिक्कतें कम नहीं हुई हैं। पहली बात तो ये है कि ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन के मुश्किल फॉर्म को भरने के लिए क्या कोई मजदूरों की मदद कर रहा है? वहीं रजिस्ट्रेशन हो भी गया तो कई इलाकों से खबरें हैं कि कोरोना फ्री सर्टिफिकेट देने के लिए डॉक्टर उन कंगाल प्रवासी मजदूरों से पैसे वसूल रहे हैं। शायद यही वजहें हैं कि ये कामगार घर वापसी के लिए ऊलजलूल तरीके अपना रहे हैं।

सीमेंट मिक्सर से निकलने लगे हैं प्रवासी मजदूर

आपने किसी जादूगर के हैट से कबूतर और खरगोश निकलते कई बार देखे होंगे लेकिन सीमेंट मिक्सर से निकलते जीते-जागते इंसानों की ये दर्दनाक तस्वीरें शायद पहली बार आपकी नजर से गुजरी होंगी। आप इस स्थिति का अंदाजा लगाइये जब अपनी जान बचाने के लिए किसी इंसान ने अपनी जान को ही दांव पर लगा दिया। क्वारंटीन सेंटर की असलियत मध्य प्रदेश के गुना इलाके के इस परिवार से पूछिए जिन्हें क्वारंटीन करने के नाम पर एक शौचालय में बंद कर दिया गया था। लॉकडाउन से पहले हो सकता है कि आप भी मॉर्निंग वॉक पर जाते हों। लेकिन वॉक का असल मतलब उस मां से पूछिए जो अपनी मासूम बच्ची को गोद में उठाए सूरत से इलाहाबाद की वॉक पर निकल गई। ये वॉक सिर्फ 1300 किलोमीटर की है।

घर वापसी चाहिए, सम्मान के साथ

अगर आप ये सोच रहे हैं कि हमारे देश में भोजन का अधिकार एक कानून है तो अपना भ्रम तोड़ने के लिए आपका इन प्रवासी मजदूरों से मिलना जरूरी है। पिछले 40 दिनों में काम करने की जगहों से लेकर सरकारी कैंप्स तक, ना इन लोगों के रहने का सही इंतजाम हुआ ना खाने-पीने का। कोरोना से लड़ाई की कवरेज करते हुए मेनस्ट्रीम मीडिया में आपको सिर्फ सरकारों की पीठ थपथपाती तस्वीरें दिखेंगी। वो अपनी जगह सही है लेकिन जमीन पर बजती हुई थालियों और आसमान से बरसते हुए फूलों के बीच इन मजदूरों के लिए हमारी गुजारिश है कि इन्हें सुरक्षित घर पहुंचने के लिए सिर्फ ट्रेन और मुफ्त का सफर नहीं चाहिए, उसके साथ थोड़ी इज्जत भी चाहिए जो इस देश का नागरिक होने के नाते उनका अधिकार है।