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कामकाजी महिलाओं की सूची में बांग्लादेश, नेपाल से भी पीछे है भारत

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की जेंडर गैप रिपोर्ट-2020 सामने आई है और पूरी तरह से तमाचा मारती है। पुरुष प्रधान समाज को बल देती हुई ये रिपोर्ट हर उस मानसिकता को झटका देती है जो कहती है कि महिलाएं और पुरुष समान है। एक तरफ पूरी दुनिया में आर्थिक असमानता फैली हुई है और इसका बहुत गहरा असर महिलाओं पर भी पड़ा है। वर्ल्ड इकोनामिक फोरम की जेंडर गैप रिपोर्ट-2020 में भारत पिछले साल के तुलना में 4 स्थान और नीचे खिसक गया है और अब 153 देशों की सूची में 112वें नंबर पर है। सबसे बड़ी बात ये है कि भारत अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश (50), नेपाल (101) और श्रीलंका (102) से भी नीचे है।

सबसे मजेदार बात ये है कि 153 देशों में भारत इकलौता ऐसा देश है जहां राजनैतिक लिंग अंतर की तुलना में आर्थिक लिंग अंतर ज्यादा है। हालांकि महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी घटा है। संसद में इस समय केवल 14.4% महिलाएं हैं और इस इंडेक्स में भारत का 122 वां और 23% कैबिनेट मंत्रियों के साथ दुनिया में 69वां स्थान है। भारत में 82% पुरुषों की तुलना में केवल 24% महिलाएं ही कामकाजी हैं। केवल 14% महिलाएं नेतृत्वकारी भूमिकाओं में हैं और भारत का इस इंडेक्स में 136 वां स्थान है। स्वास्थ्य और जीवन रक्षा इंडेक्स में भारत 150 वें नंबर पर है।

विश्व बैंक के आंकड़ें और भी खतरनाक है

भारत में कामकाजी महिलाओं के अनुपात के बारे में विश्व बैंक द्वारा पेश आंकड़े इससे भी अधिक झंझोरने वाले हैैं। महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर के मामले में भारत से नीचे केवल मिस्र, मोरक्को, सोमालिया, ईरान, अल्जीरिया, जॉर्डन, इराक, सीरिया और यमन जैसे 9 देश हैं। एनएसएसओ द्वारा प्रकाशित आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) ने 2017-18 में श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी केवल 23.3% दिखाई गई है, जो बहुत ही निराशाजनक है। इससे साफ है कि 15 साल की आयु से ऊपर की चार में से तीन महिलाएं काम नहीं कर रही हैं और न ही काम की खोज कर रही हैं। भौगोलिक रूप से बिहार 4.1% की महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर के साथ भारत के राज्यों में सबसे नीचे है। जबकि मेघालय (51.2%), हिमाचल प्रदेश (49.6%), छत्तीसगढ़ (49.3%), सिक्किम (43.9%), और आंध्र प्रदेश (42.5%) के साथ महिलाओं की कार्यबल भागीदारी में सबसे आगे हैं।

भारत में शहरी महिलाओं के लिए महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर काफी हद तक स्थिर रही है। 2011-12 में 20.5% से 2017-18 में ये मामूली रूप से घटकर 20.4 प्रतिशत रही है। इसी अवधि में ग्रामीण महिलाओं के लिए कार्यबल की भागीदारी दर 35.8% से गिरकर 24.6% हो गई, जो विशेष चिंता का विषय है। साल 2004-05 में शहरी और ग्रामीण महिलाओं के लिए दर्ज महिला शक्ति भागीदारी दर 24.4% और 49.4% थी। इससे साफ है कि भारत में महिलाओं के आर्थिक क्षमता और हैसियत पिछले 15 सालों में लगातार घटती रही है।

कृषि क्षेत्र में महिलाओं की श्रम भागीदारी घटने का एक बड़ा कारण राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून और मनरेगा भी हैं। इसके कारण गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों की महिलाओं ने मजदूरी के लिए खेतों में काम करना करीब-करीब बंद कर दिया है। अब वो केवल अपने घर के कृषि कार्यों में बिना मजदूरी के सहयोग देने तक सीमित होती जा रही हैं। ग्रामीण श्रमिकों में 73.2% महिलाएं कृषि में लगी हुई थीं, जिसका अर्थ है कि ग्रामीण पृष्ठभूमि में महिलाओं के लिए अभी गैर-कृषि कार्यों को हासिल कर पाना दुर्लभ ही है।

शहरी कामकाजी महिलाओं के बीच दो सबसे बड़े रोजगार वस्त्र संबंधी व्यवसाय और घरेलू कर्मचारी का है। इससे साफ है कि शहरों में कामकाजी महिलाओं की भागीदारी अच्छे व्यवसायों में बहुत कम है और उनके काम की गुणवत्ता भी संदिग्ध है। मैक्किंसे ग्लोबल इंस्टीट्यूट के अनुसार भारत अपने कार्यबल में लिंग समानता को या महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर को अगर 10% प्रतिशत और बढ़ा लेता है, तो भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद को 2025 तक 700 अरब डॉलर या 1.4% प्रतिवर्ष तक बढ़ा सकता है।

क्या है सामाजिक पहलू

हालांकि इसके कुछ सामाजिक पहलू भी हैं। भारत में खासकर उत्तर भारत की ऊंची जातियों और मुस्लिम महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी बहुत कम होने को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। कार्य स्थलों पर महिलाओं से बेहतर व्यवहार न होना भी इसका एक बड़ा कारण है। जिसके कारण बहुत मजबूरी में ही महिलाएं घरों से बाहर काम करने के लिए निकलना पसंद करती हैं। इसके कारण कम मजदूरी और कम उत्पादकता वाले कामों में महिलाओं की भारी बहुलता है। इससे महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक हैसियत और गतिशीलता सीमित होती है।

भारत में लैंगिक आय असमानता का सबसे बड़ा कारण महिलाओं का घरेलू कामों में ज्यादा लगा होना है। इसके कारण महिलाएं आर्थिक रूप से लाभदायक व्यवसाय में अपनी भागीदारी बढ़ा नहीं पा रही हैं। जो महिलाएं नौकरी करती भी हैं, उनको कुछ संस्थागत क्षेत्रों को छोड़कर पुरुषों के समान वेतन शायद ही मिलता है। ये ध्यान रखना सबसे महत्वपूर्ण है कि श्रम बाजार में लैंगिक समानता यानी महिलाओं की ज्यादा भागीदारी होने से गरीबी, शिशु मृत्यु दर, प्रजनन और बाल श्रम में तेजी से कमी होती है।