कुछ ही महीनों में दिल्ली का सियासी पारा काफी ज्यादा बढ़ने वाला है। हाल ही में हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए हैं, जिसके बाद अभी झारखंड और फिर दिल्ली की बारी है। हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को उम्मीद के मुताबिक परिणाम नहीं मिले। इन दोनों राज्यों में अगर किसी ने पारी बदली है तो वो थे क्षेत्रीय दल। दिल्ली विधानसभा चुनाव की अगर बात करें तो वो 2020 में शुरुआती महीनों में होने हैं। जैसे जैसे दिल्ली विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं। वैसे ही राजनीति भी गर्म हो रही है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एक बार फिर से आम आदमी पार्टी के माथे पर जीत का सेहरा बांधने का दावा कर रहे हैं लेकिन ये तभी मुमकिन है जब वो महाराष्ट्र और हरियाणा में बीजेपी की तरह गलतियां न करें और सही मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित कर चुनाव लड़ें।
अगर केजरीवाल एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होना चाहते हैं तो उनके लिए ये सबक लेना बहुत जरूरी हैं, नहीं तो उनका हाल भी देवेंद्र फड़नवीस और खट्टर जैसा हो सकता है।
सबक 1: वोट शेयर मायने रखता है
हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर 2019 लोकसभा चुनाव के मुकाबले करीब 22 फीसदी गिरा था। वहीं साल 2014 लोकसभा चुनाव के 9 महीने बाद साल 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए थे और उसमें भी भाजपा का वोट शेयर 14 फीसदी गिरा था। वोट शेयर कम तो हुआ, लेकिन भाजपा और खासकर नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई थी। 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजों से ये साफ हो गया था। लेकिन राष्ट्रवाद और आर्टिकल 370 को हटाने जैसे मुद्दे हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा की लोकप्रियता को वोटों में नहीं बदल सके थे। ऐसे में आम आदमी पार्टी के लिए यही उम्मीद है और दिल्ली के वोटर भी पार्टी के काम के आधार पर अपना वोट तय कर सकते हैं। हालांकि अरविंद केजरीवाल की राजनीति भाजपा से काफी अलग है वो मुद्दों पर आधारित ज्यादा राजनीति करते हैं।
सबक 2: तीसरी पार्टी होने के फायदे
दिल्ली में पिछले 2 विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का वोट शेयर नहीं बढ़ा है। जबकि छोटी पार्टियों और निर्दलीयों का वोट शेयर 6.1 फीसदी से बढ़कर 17.4 फीसदी पहुंच गया। जिससे साफ साबित होता है कि कांग्रेस पार्टी को फायदा नहीं हुआ है और जाट, मुस्लिम और कुछ दलित वोट उन उम्मीदवारों को पड़े हैं, जिनमें उन्होंने भाजपा को हराने की काबिलियत देखी। इसी कारण सीटों की संख्या को लेकर कांग्रेस को निराशा हाथ लगी थी। क्योंकि मुकाबला भाजपा और एक तीसरी पार्टी के उम्मीदवार के बीच में था। दिल्ली की कई सीटों पर मुस्लिम वोटरों में वोटिंग का ये रुझान देखने को मिला है। साल 2013 के विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मुस्लिम वोट पड़े हैं। लेकिन 2014 लोकसभा चुनावों और 2015 के विधानसभा चुनावों में उनका वोट आम आदमी पार्टी को गया था। इससे लगता है कि हरियाणा के वोटिंग पैटर्न की झलक दिल्ली में भी देखने को मिल सकती है और यहां भी सबसे मजबूत गैर-भाजपा उम्मीदवार को भारी वोट पड़ सकते हैं।
सबक 3: मुद्दों का सावधानी से चुनाव
भाजपा और शिवसेना गठजोड़ को महाराष्ट्र के शहरी इलाकों में करीब 80 फीसदी और हरियाणा के शहरी इलाकों में करीब 90 फीसदी सीट मिली है। लेकिन दोनों ही राज्यों के ग्रामीण इलाकों की हालत खस्ता रही है। हरियाणा में तो बीजेपी को बमुश्किल एक-तिहाई सीट मिल सकी है। ऐसा हो सकता है कि शहरी इलाकों में राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे और मोदी की लोकप्रियता काम कर गई हो लेकिन गांवों में ये बातें मायने नहीं रखती है। दिल्ली मुख्य रूप से शहरी और अर्धशहरी क्षेत्र है, लिहाजा आप और कांग्रेस के लिए भाजपा का मुकाबला करना ज्यादा कठिन हो सकता है। हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को एंटी-इन्कम्बेंसी फैक्टर का भी सामना करना पड़ा था, लेकिन दिल्ली की सत्ता पर केजरीवाल विराजमान है। तो ऐसे में अरविंद केजरीवाल को इसका भी ध्यान रखना होगा।
सबक 4: इतिहास से सबक लें
दिल्ली की जनता का इतिहास है कि वो लोकसभा और विधानसभा चुनावों में वोटिंग पैटर्न अलग रखती है। 1998 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में शीला दीक्षित की अगुवाई में कांग्रेस को सत्ता पर बिठाया। लेकिन इसके एक साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में भाजपा को सभी 7 सीटों पर जीत मिली। साल 2014 में भाजपा को सभी 7 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल हुई, लेकिन मुश्किल से 8 महीने बाद ही केजरीवाल ने विधानसभा की 70 में से 67 सीटों पर कब्जा कर दिल्ली में मजबूती के साथ सरकार बनाई।